5th Day of Navaratri Celebrations, Guru Tattwa (Mahima) and Shri Krishna
[Hindi Transcript]
गुरू तत्व और श्रीकृष्ण शक्ति २६ सितम्बर १९७९, मुंबई अभी तक के लेखों के अनुसार अपने शरीर में अलग-अलग देवताओं के विशिष्ट स्थान हैं। सद्गुरु का भी स्थान अपने शरीर में है और यह स्थान हमारे शरीर में हमारी नाभि के चारों तरफ है। नाभिचक्र पर श्री विष्णुशक्ति का स्थान है। विष्णुशक्ति के कारण ही मानव की अमीबा से उत्क्रान्ति हुई है। और इसी विष्णुशक्ति से ही मानव का अतिमानव होने की घटना घटित होगी। सद्गुरु का स्थान आप में बहुत पहले से स्थित है। अब गुरूतत्व कैसा है यह समझने की कोशिश करते हैं । गुरुतत्व अनादि है। आप में अदृश्य रूप से तीन मुख्य शक्तियाँ कार्यान्वित हैं। इसमें से पहली शक्ति को हम श्री महाकाली की शक्ति, दूसरी को श्री महासरस्वती की शक्ति व तीसरी को श्री महालक्ष्मी की शक्ति कहेंगे। इसमें से जो महाकाली की शक्ति है उससे ऐसी स्थिति प्राप्त होती है कि जिससे अपना अस्तित्व टिका हुआ है। इस सृष्टि का अस्तित्व है। इस विश्व का अस्तित्व भी श्री महाकाली शक्ति के कारण ही टिका है । आप में इस शक्ति का संचालन ‘इड़ा’ नाड़ी से होता है। ये नाड़ी हमारे शरीर के बांयी तरफ है और वह अपने शरीर के बांयी तरफ का संचालन व नियमन करती है। बांयी सिम्पथैटिक नव्व्हस सिस्टम को चलित करती है। इस नाड़ी के कारण हमको इच्छा शक्ति प्राप्त होती है। इच्छा से ही मनुष्य कार्यान्वित होता है। यह कार्यशक्ति आप में दायीं तरफ होकर आपके सारे दायें तरफ (दायीं सिम्परथैटिक नव्व्हस सिस्टम) का संचालन करती है। यह शक्ति कार्यशक्ति कही जाएगी और इस शक्ति का वहन या नियमन पिंगला नाड़ी से होता है। ये आपके शरीर में दायीं ओर होती है। इसे महासरस्वती शक्ति के कारण शक्ति मिलती है। कुण्डलिनी शक्ति जागृत होने के बाद आप दोनों (इड़ा और पिंगला ) नाड़ियों का संतुलन जान सकते हैं। असंतुलन कहाँ हो सकता है इसका ज्ञान हो सकता है तथा सहजयोग के कुछ आसान तरीकों से आप संतुलन ठीक कर सकते हैं। कहने का उद्देश्य यह है कि मनुष्य की ज्यादातर तकलीफें या सभी परेशानियाँ (शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक) ऊपर कही गयी दोनों नाड़ियों के असंतुलन से ही होती हैं। इसलिए इन दोनों नाड़ियों में संतुलन रहना बहुत अत्यावश्यक बात कही जाएगी । ऊपर कही गयी दोनों शक्तियों के अलावा हममें तीसरी शक्ति भी स्थित है। यह शक्ति भी बहुत ही महत्वपूर्ण है क्योंकि आज हम जिस मानव चेतना को प्राप्त हुए हैं वह इसी शक्ति के कारण है। इसे महालक्ष्मी की शक्ति कहा जाता है। इसी शक्ति के कारण मनुष्य की अमीबा से उत्क्रान्ति हुई है। ये तीनों शक्तियाँ जब बाल स्वरूप एकत्रित होती हैं अर्थात जहाँ तीनों शक्तियों का समन्वय होता है वहाँ किसी भी प्रकार की गन्दगी या परेशानी नहीं रहती। ऐसी चीज़ हमेशा नयी और ताज़गी भरी होती है। ऐसी वस्तु में किसी भी तरह का अहंकार वगैरा नहीं होता है। यही वह सद्गुरू तत्व है। जैसे-जैसे मनुष्य बड़ा होता है वैसे-वैसे उसमें दो ग्रंथी और दो विशेष संस्था धीरे-धीरे बनती हैं, उसमें से एक को अहंकार व दूसरी को प्रति अहंकार कहते हैं। अंग्रेजी भाषा में उन्हें ‘इगो’ व ‘सुपर इगो’ कहते हैं। ये दोनों संस्थायें इच्छा व क्रिया शक्ति से बनती हैं। जब एक मनुष्य बहुत इच्छा करता है या केवल इच्छा से ही भरा होता है तब प्रति अहंकार प्रस्थापित होता है। दूसरी संस्था माने अहंकार की संस्था का क्रियाशक्ति से निर्माण होता है। ये संस्था किसी भी मनुष्य में जो कुछ भी काम करता है उसमें प्रस्थापित हो सकती है। मनुष्य उस समय सोचता है कि ‘मैंने फलाना काम किया’, ‘मैंने सड़क बनाने का काम किया’, ‘मैंने बाँध बनवाया’, ‘मैंने मकान बनाया’ इससे मनुष्य में एक तरह का कर्तापन आता है और उसी से उसकी अहंकार की संस्था बढ़ती है। ये संस्था आपके सिर के बायीं ओर से शुरू होकर सिर के बीचोंबीच आती है। जब अहंकार व प्रति अहंकार ये दोनों संस्थायें बीचोंबीच आकर मिलती हैं तब तालू भर जाता है । इसे अंग्रेजी में ‘कैल्सीफिकेशन’ कहते हैं। सामान्यत: बच्चे की तालू ३-४ साल तक पूरी भरती है। इस उमर तक बच्चे बहुत अच्छी तरह से बात करना सीख जाते हैं व अपनी मातृभाषा में बोल सकते हैं सद्गुरू तत्व, श्री महाकाली, श्री महासरस्वती और श्री महालक्ष्मी इन तीन शक्तियों के समन्वय से ( मेल से) बना है । यह
गुरू तत्व हमारे अन्दर परमेश्वर ने बहुत ही नूतन स्वरूप में स्थित किया है। आप सबको श्री सद्गुरू दत्तात्रेय का जन्म कैसे हुआ मालूम है। श्री दत्तात्रेय में श्री ब्रह्मा, श्री विष्णु व श्री महेश इन तीनों देवताओं की शक्ति समन्वित है। ये शक्ति आपकी नाभि के चारों तरफ जिसे भवसागर कहते हैं, उसमें समाविष्ट है। संपूर्ण विराट पुरुष में भी ये शक्ति समाविष्ट है। ये शक्ति अनेक बार जन्म लेती है । आदिकाल से देखा जाय तो श्री आदिनाथ इसी शक्ति के अवतार हैं। जैन संप्रदाय में श्री आदिनाथजी को सद्गुरू मानकर उनका पूजन करते हैं और प्रार्थना करते हैं। परन्तु जैन लोगों को श्री आदिनाथजी की शक्ति के बारे में मालूम नहीं है। तीनों शक्तियों से निर्माण होने वाली ये प्रथम शक्ति है। इस शक्ति में धर्मांधता नहीं है। सन्यासी की जाति नहीं होती है, ऐसा हम कहते हैं। इसका अर्थ यही है कि वह सभी जाति व धर्म को मानता है। अगर कोई व्यक्ति कहता है कि मैं फलाने जाति का गुरू हूँ, मैं फलाने धर्म का गुरू हूँ तो निश्चित समझ लीजिए कि वह व्यक्ति या सर्व धर्मों का भोला सद्गुरू नहीं है। सद्गुरु तत्व की पहचान ही ये है कि सारे धर्मों का जो सार है या सर्व धर्मों की नूतनता भाला रूप है वह इस सदुगुरू तत्व में शामिल है। इस दुनिया में धर्म के नाम पर कितनी संस्थाएं हैं, वैसे ही अनेक व्यक्ति हैं जो अपने आपको धर्मगुरू कहलवाते हैं। उसमें भी कई राजनीतिक संस्थाएं हैं। फिर एक धर्मपंथियों ने दूसरे धर्मपंथियों पर टीक-टिप्पणी करनी है। उदाहरण – हिन्दुओं ने मुसलमानों पर, मुसलमानों पर क्रिश्चियन लोगों की, क्रिश्चियन लोगों ने मुसलमानों को। सच कहें तो ऐसे जो लोग हैं वे सब दांभिक व अज्ञानी हैं क्योंकि ऐसे लोगों को सद्गुरूतत्व माने क्या, इसका ज्ञान नहीं है | कौन सद्गुरू है, कौन नहीं है, ये वे नहीं जानते। अब सदुगुरू पहचानने का चिन्ह क्या है यह देखते हैं। सद्गुरू आपके पैसा या धन की माँग नहीं करेंगे। उल्टा वह धन को धूल समान मानेंगे। सद्गुरू को आप सोना या पैसा, हीरे-मोती देकर खरीद नहीं सकते। सद्गुरुओं को इन चीज़ों की जरा भी आसक्ति नहीं रहती है। सद्गुरू अपने स्वयं के स्वभाव में स्वच्छंदता से रहते हैं। अगर उन्हें लगा तो वे औरों से बोलेंगे, नहीं तो नहीं। सद्गुरू परमेश्वर प्राप्ति के लिए आपकी विनती करके आप के पीछे-पीछे नहीं दौड़ेंगे। ये सब, मैं आपकी माँ हूँ इसलिए आपसे कह सकती हूँ कि प्रथम अपने आपका सद्गुरु तत्व जानिए। मुझे कितनी योगसाधना किये हुए साधु व योगी मिले हैं। ये सारे लोग बहुत बड़े हैं। उन्हें मैंने कहा, आप सब जंगलों या पहाड़ों पर बैठने के बजाय समाज में आकर लोगों को परमेश्वर प्राप्ति के लिए उद्यत कीजिए, उनका सद्गुरुतत्व जागृत करवा दीजिए। परन्तु इन महायोगी लोगों को समाज में नहीं आना है। वे कहते हैं कि समाज के लोग अभी इतने लायक नहीं हैं कि उन्हें इतनी बड़ी शक्ति सहज में दे दो। ऐसे महायोगी लोगों की स्थिति एकदम निराली है। ऐसे महान लोगों के सामने भी अति विनम्रता से व्यवहार करके सम्भल के बातें करनी पड़ती हैं, नहीं तो वे डंडे या चिमटे आपको मार सकते हैं। सद्गुरुओं के आसपास का वातावरण भिन्न प्रकार का व पवित्र होने से वे स्वभाव से भी कठोर होते हैं। वे किसी भी प्रकार का अधर्म नहीं सह सकते। समाज में परमेश्वर प्राप्ति के लिए तथा कुण्डलिनी शक्ति जागृत करने के लिए किसी रूपी माँ की कार्यपपद्धति में दो प्रकार हैं। एक सदुगुरु तत्व व दूसरे मातृप्रेम। ऐसी माँ का हृदय प्रेमशक्ति से व परमेश्वर की करुणा से पूरा -पूरा भरा हुआ होता है। ऐसा बहता हुआ प्यार और परमेश्वर की शक्ति औरों को देने के लिए वह माँ उत्सुक रहती है। परन्तु इसी के साथ सद्गुरु तत्व की सारी बातों का पूरे उत्तरदायित्व के साथ पालन करना पड़ता है और इसलिए औरों ने परमेश्वर प्राप्ति के लिए कौनसी बातें करनी चाहिए और कौनसी नहीं करनी है इस पर प्रतिबन्ध लगाया है। उसके साधकों में अनुशासन होना बहुत जरुरी है। आपको पहले बता चुकी हूँ कि सद्गुरु तत्व आपके भवसागर में स्थिति है। अब ये सद्गुरु तत्व आपमें कार्यान्वित कैसे है। ये देखकर थोड़ासा आश्चर्य होगा। उदाहरण के तौर पर समझ लीजिए आप बहुत ही सात्विक विचार के व्यक्ति हैं। आप किसी दुष्ट प्रकृति वाले व्यक्ति के घर खाना खाने गये तो आपको उसके घर खाने के बाद बहत तकलीफ होगी। इस तरह की तकलीफ होने के पीछे यदि आप अति सूक्ष्म कारण खोजें तो आपके ध्यान में ये बात आएगी कि दुष्य प्रकृति वाले व्यक्ति के घर खाना खाने से हमें तकलीफ हो रही है। सद्गुरु कुछ बातें बिल्कुल स्पष्टता से बता रही हूँ। इसके लिए किसी भी प्रकार का बुरा मत मानिए क्योंकि मैं ‘माँ’ हूँ इसलिए जब स्पष्टता से बता रही हूँ। यह सभी लोगों को जान लेना चाहिए। सद्गुरु तत्व प्रमुखत: हमारे शरीर में यकृत में स्थित होता है। सद्गुरु तत्व से आप में चेतना शक्ति कार्यान्वित होती है। जब तक अपना यकृत अच्छी तरह से कार्य करता है तब तक अपनी चेतना ठीक होती है। जब आपका यकृत खराब होता है तब अपनी चेतना विचलित होती है। आपने देखा होगा जिस मनुष्य की पित्त प्रवृत्ति होती है उसने तली हुई चीज़ें खायीं तो उसे पित्त की
तकलीफ होती है व उसकी चेतना विचलित होती है। अपना यकृत अपने चेतना को शोषित करता है और इसलिए अपना यकृत अच्छी स्थिति में रखना जरूरी है। अब यकृत क्या करता है? यकृत हमारे शरीर में से शरीर के लिए पोषक न होने वाली द्रव्यों (पदार्थों) का विश्लेषण करके उन्हें अलग करता है और उन विजातीय द्रव्यों का शरीर के बाहर विसर्जन करने में यकृत हमें मदद करता है। यकृत में बिगाड़ होने की क्रिया बहुत मंद होती है और इसलिए उसमें खराबी होगी तो उसका निदान (डायग्नोसिस) होने में बहुत देर लगती है और उससे यकृत बहुत जल्दी खराब होता है । सर्वप्रथम आती है शराब। अब तक संसार में जितने सद्गुरुओं का अवतरण हुआ है चाहे वे श्री मोज़ेज हों, श्री लाओत्से हों या श्री सॉक्रेटीस हों, सभी सद्गुरुओं ने एक बात प्रमुखता से बतायी है कि मदिरापान मानव धर्म के विरोध में है। इसका कारण ये है कि अपने पेट में दस धर्मों का स्थान है। मदिरापान से अपनी चेतना पर आक्रमण होता है तो उससे दसों धर्मों पर आक्रमण होता है। जब मनुष्य की चेतना ही कम होती है तब वह चेतना के विरोध में होता है। इस मामले में हमारे सहजयोगी शिष्यों का बहुत गहरा अध्ययन है और उसके लिए एक को लन्दन विश्वविद्यालय ने डॉक्टरेट डिग्री दी है। वे मॉरेशियस के निवासी हैं। उनका नाम है श्री रेजीस। मदिरापान से मनुष्य की चेतना कम होकर मनुष्य का चेतना के विरोध में कैसे पतन होता है यह उन्होंने सिद्ध करके बताया है। मदिरा से खून के जहरीले द्रव्यों का वर्गीकरण नहीं हो सकता। अगर कहीं हुआ तो उसके यकृत में ढ़ेर बनकर यकृत की पेशी पर उसका प्रभाव आ जाता है। आपने ये देखा होगा कि जिस व्यक्ति ने मदिरापान किया हो उस मनुष्य के शरीर का तापमान नहीं बढ़ता, क्योंकि शरीर में निर्माण होने वाली सारी गरमी यकृत में या किसी दूसरे हिस्सों में संग्रहित होती है। पानी के घटकों के बदल से पानी भी शरीर में निर्माण होने वाली गर्मी शोषण नहीं कर सकता। और उसी से शरीर का एक-एक हिस्सा खराब होने लगता है। उसमें सबसे पहले यकृत पर सबसे ज्यादा प्रभाव होता है। इसी का परिवर्तन आगे कर्करोग महारोग जैसे बीमारी में होता है। कर्करोग भी हाइड्रोजन व ऑक्सीजन इसमें होने वाले बदल के कारण होता है। किसी कर्करोगी व्यक्ति को ठीक से देखा होगा तो दिखाई दिया होगा। उसके बदन पर अलग-अलग निशान पड़े हुए और उसके शरीर के कुछ हिस्से जले हुए। परन्तु उस व्यक्ति का तापमान हमेशा की तरह साधारण ही रहेगा। एक बात निर्विवाद है सद्गुरु तत्व के विरोध में कोई भी बात करने से वह शराब पीता हो या और कोई भी बात हो, उससे मनुष्य की चेतना नष्ट होकर उसमें कर्करोग जैसी बीमारी हो सकती है। शराब पीने से एक और बात मनुष्य के शरीर में होती है कि खून की नली फूककर मोटी होती है। इसका कारण खून के पानी की घटना में होने वाला परिवर्तन है जिससे मनुष्य में अनेक प्रकार की बीमारियाँ हो जाती है। सच देखा जाय तो मदिरा माने पाश्चिमात्य देशों में जिसे ‘वाइन’ कहते हैं। वह पेय है। ‘वाइन’ माने ताजे अंगूर का रस। मुनष्य के अतिश्योक्ति (extreme) के कारण उन्होंने अंगूर के रस को सड़वाकर उसे मदिरा का रूप दिया। इस तरह की मदिरा अलग-अलग वस्तुओं को पॉलिश करने के लिए इस्तेमाल करनी चाहिए । उदाहरण, अगर हीरे पॉलिश करने हैं तो ‘जिन’ से करने होते हैं या किसी जगह स्प्रिट इस्तेमाल करते हैं। ये स्प्रिट पॉलिश की जगह उपयोग में लाने के बजाय अगर शरीर में गया, तो उस वजह से बीमारियाँ पकड़ती हैं। मनुष्य की बुद्धि की विपरीतता की कल्पना भी नहीं कर सकते। जो चीज़ पॉलिश करने के लिए है उसको पीने में पता नहीं उसे कौनसा आनन्द आता है? मदिरापान से मनुष्य की चेतना नष्ट होती है। इसलिए वह अपनी तरफ अन्तर्मुख होकर नहीं देख सकता। वह अपने आपको नहीं जान सकता। इससे वह सत्य से बिल्कुल दूर जाता है। ‘सत्य’ भयानक नहीं कि जिससे मनुष्य इतना दूर रहता है। ‘सत्य’ बहुत सुन्दर है, मनमोहक , शान्तिदायक और सुखकारक है। परन्तु मनुष्य को उसकी कल्पना नहीं है और इसलिए मनुष्य को समझाने के लिए इस पृथ्वी पर अनेक सद्गुरुओं ने जन्म लिए। एक सादासा नुस्खा है कि मनुष्य को अपना जीवन समतोल रखना चाहिए। वह व्यावहारिक हो या वैवाहिक हो , अगर सामाजिक जीवन हो, सभी में समतोलना (सन्तुलित) होना आवश्यक है । ये बिल्कुल नैसर्गिक ( नैचरल) है । आपने देखा होगा कि सर्वसाधारण मनुष्य छः फुट लम्बा नहीं होता है। वैसे ही इस सृष्टि की और बातों में भी आपको समतोलन देखने को मिलेगा। जो मनुष्य बहुत ज्यादा स्पर्धा (competition) रहता है वह अन्त में पागल हो जाता है। पश्चिमी देशों में हर बात में भाग-दौड़ (रेस) है। वहाँ का स्टैटिस्टिक (आंकडे) देखा जाए तो हर एक बात में स्पर्धा दिखायी देगी। इस वजह से वहाँ के बहुत से लोगों की स्थिति पागलों जैसी हो गयी है। इस प्रतियोगिता के कारण मनुष्य में असाधारण निर्माण होता है, जिससे उसका सर्वांगीण (चौतफ्फा या चारों तरफ से) विकास नहीं हो सकता। उल्टे उसका नाश होता है। अतः मनुष्य ने सन्तुलित जीवन जीकर अपने शरीर के सद्गुरू तत्व के सद्गुरु को मजबूत करना बहुत जरूरी है। उसके बाद ही उसमें धर्म की स्थापना हो सकती है। ऐसे सन्तुलित जीवन से मनुष्य अपने स्वयं का में টি
धर्म पहचानने में समर्थ होता है। जिस समय मनुष्य स्वयं के दस धर्मों से गिर जाता है तब उसका नाश होता है और वह असन्तुलितता में धकेला जाता है। इसलिए उन दसों धर्मों का पालन करना आवश्यक है। इन दस धर्मों के बारे में बाइबिल में विषद रूप से बताया गया है। आप ने समाज पर सुसंस्कार नहीं किये तो आप की क्रियाशक्ति यानी पिंगला नाड़ी कार्यान्वित नहीं रहेगी और इड़ा नाड़ी पर दबाव आकर प्रति अहंकार की संस्था मेंदू में स्थापित होगी और मनुष्य पूर्णतया उसी के दबाव में आएगा। इससे उल्टा अगर में अहंकार की संस्था ज़्यादा प्रस्थापित होगी तो वह हिटलर की तरह बनेगा और उसे ऐसा लगने लगेगा कि मैं बहत बड़ा मनुष्य कार्य कर रहा हूँ और बहत से लोग मुझे हार पहनाएंगे और मेरी आरती उतारेंगे, वगैरा। परन्तु ऐसे मनुष्य को ये समझ में नहीं आता कि वह पूर्णत: अहंकार के दबाव में आने से असन्तुलितता में धकेला जा रहा है और ऐसा व्यक्ति पूर्णत : अहंकारी होता है । इसका वर्णन आप वाल्मिकी रामायण में, श्री नारद मुनि ऐसे अहंकार से किस तरह असन्तुलितता में धकेले गये, पढ़ सकते हैं। ऐसे अहंकारी लोगों को लगता है हम बहुत कामयाब है । परन्तु ऐसे व्यक्तियों का व्यक्तिगत जीवन गौर से देखा जाय तो ऐसे लोग अत्यन्त तेज स्वभाव के, नीच और अतिमूर्ख होते हैं। यह सब असन्तुलन से होता है। असन्तुलन सद्गुरू तत्व की रक्षा न करने से आता है। अब आप सवाल करोगे कि सद्गुरू तत्व की रक्षा कैसे करें और इसके लिए क्या करें? सर्वप्रथम आपके गुरू कौन हैं यह देखना जरूरी है। यह समझना जरूरी है । समाज में अनेक प्रकार के गुरू देखने को मिलते हैं। अगर कोई गुरू हमें नाम लेने (गुरु अपने स्वयं की स्तुति) के लिए प्रवृत्त करता होगा तो निश्चित समझ लीजिए कि वह सद्गुरू नहीं है। परमेश्वर का नाम समझकर और जिस प्रकार की तकलीफ होगी उसके देवता का नाम लेते हैं। सबके लिए एक ही देवता का नाम लेकर काम नहीं बनता। उल्टे उससे और परेशानी बढ़ती है। इस बारे में यह कह सकते हैं हमें बुखार आया तो डॉक्टर की दी हुई एक दवाई हम खाते हैं। पर वही दवाई दूसरी बीमारियों पर कैसे काम आएगी ? उल्टे परेशानी ही होगी। यही बात अलग-अलग देवताओं के नाम के बारे में कही जाएगी। जो व्यक्ति आत्मसाक्षात्कारी नहीं वह सद्गुरु नहीं हो सकते। माँ के पास जो करुणा होती है वह उन लोगों में नहीं होगी। योगी लोगों ने बहुत मेहनत की है और उसके बाद उनका अधिष्ठान जमकर उन्हें परमेश्वरी शक्ति की अनुभूति मिलती है। इसलिए और लोगों को भी कुण्डलिनी जागृति के लिए मेहनत करनी चाहिए ऐसा उन्हें लगता है। विश्व में अब तक जितने सद्गुरु हुए उन्होंने सहजयोग का ही मार्ग अपनाया था। उदाहरण श्री ज्ञानेश्वर महाराज श्री तुकाराम महाराज श्री नामदेव श्री नानक , नी कबीर ऐसे अनेक सद्गुरुओं ने समाज में रहकर लोगों की सेवा की और उन्हें धर्म सिखाने का प्रयास किया और ठीक मार्ग पर लाने का प्रयास परन्तु उस जमाने के लोगों ने इन सभी गुरूओं की न सुनकर उन लोगों पर इतने अत्याचार किये, बहुत बार उन्हें मारा तक, उनको समाज से बाहर कर दिया, उन्हें खाने को भी नहीं दिया। अब उन सभी की लोग पालकी लेकर घूमते हैं, जुलूस निकालते हैं, उनके नाम से बड़े बड़े सम्मेलन करते हैं, उन्हीं के नाम से पैसे कमाते हैं और उनके नाम पर अन्नछत्र भी चलाते हैं लोगों के इस पाखण्डीपन का और झूठेपन का बड़ा आश्चर्य होता है। जबसे गुरू प्रत्यक्ष जिन्दा थे तब उनके साथ बुरा व्यवहार किया और उनकी मृत्यु के बाद उनकी जय-जय क्यों? यह बिल्कुल सद्गुरु तत्व के विरोध में है। किया। | मनुष्य की बुद्धि स्वतंत्र है। परमेश्वर ने ही उन्हें स्वतन्त्रता दी है। आज न कल उसे अद्भुत शक्ति का ज्ञान हो यही उस विराट परमेश्वर की इच्छा है। आप तक सहजयोग में बहुत लोग सहज ही पार हुए। अब सहजयोग एक ऊँचाई पर आकर टिका है। उसे आपको ‘महायोग’ कहना होगा। जब तक अपनी कुण्डलिनी शक्ति का उत्थान न होकर वह ब्रह्मरन्ध्र का छेदन नहीं करती तब तक योग हुआ कैसे कह सकते हैं? अब तक जितने भी योग के वर्णन हैं वे सारे योग की पूर्व तैयारी हैं। परन्तु सहजयोग में जिस समय कुण्डलिनी शक्ति सहस्रार में आकर ब्रह्मरन्ध्र का छेदन करती है उस समय ‘महायोग’ घटित होता है। इसलिए सहजयोग जो अनादि है वह आपके साथ ही जन्म लेता है और आपके साथ ही अनेक सालों से चलकर आया है, जिससे आज उसकी परिपूर्ति हो रही है। उसे ‘महायोग’ मानना चाहिए। आप सभी ‘महायोग’ पाने की स्थिति में आकर पहँचे हो। अब आपके गुरु तत्व को फलित होने का समय आया है। बहुत पहले सद्गुरु दो-तीन शिष्य रखते थे । परन्तु जब तक यह बात सर्वसामान्य मनुष्य तक, तक, नहीं पहुँचती तब तक उसका अर्थ नहीं है। अब यह ज्ञान आम जनता तक पहुँचने का समय आया है, क्योंकि आपकी अन्तर्रचना ज्ञान मिलने के लिए परिपूर्ण है। केवल आपका कनेक्शन मेन्स (mains) लग जाए बस! सारे जनसमुदाय से
आम् पके सद्गुरु तत्व को नमस्कार करके आपकी श्रीकृष्ण शक्ति के बारे में मैं अब आपको बतलाती हूँ । श्रीकृष्ण शक्ति जो हमारे अन्दर है ये मनुष्य की शुरूआत है । मनुष्य ने जब अपनी गर्दन ऊपर की तब उसके अन्दर इस चक्र की स्थिति बनी है। जिसको हम विशुद्धि चक्र कहते हैं। जिसके अन्दर सोलह पंखुड़ियाँ हैं। जो कि हमारे पीछे के हिस्से में यहाँ पर अगर आप गर्दन के पीछे के हिस्से में देखें तो इस जगह पे वो है। जहाँ मनुष्य ने अपनी गर्दन उठायी और सीधी कर ली वहाँ कृष्ण शक्ति जागृत हो गयी। अब कृष्ण की शक्ति जो है ये समझना चाहिए इवो मछली, कछुआ होते हुए हम राम, राम के आगे कृष्ण तक पहुँच गये। श्रीकृष्ण शक्ति सम्पूर्ण शक्ति है । जब आपमें श्रीकृष्ण शक्ति जागृत होती है तब आपका सम्बन्ध विराट से होता है। माने जिसको अंग्रेजी में मेक्रोकोसम और मायक्रोकोसम कहते है। इसमें समष्टि और दृष्टि आ जाती है। उस समष्टि में आप समा जाते हैं। आपका व्यक्तित्व उससे करेक्टेड हो जाती है। ये कृष्ण शक्ति से होता है। इसलिए मेरा प्रोग्राम चलते वक्त मैं आपसे कहती हूँ कि आप इस तरह से मेरी ओर हाथ करें। इस तरह से हाथ करके अगर आप लोग बैठे रहें तो ये कृष्णशक्ति आपके अन्दर यहाँ पर जागृत हो जाएगी। और आपका सम्बन्ध जो है विराट से हो जाएगा। विराट की शक्ति जो है उसका नाम विराटांगना है। वो शक्ति सब दूर तक हमारे अन्दर समाई हुई है। और जिस वक्त ये शक्ति आपको मिल जाती है जब आप कृष्ण की शक्ति को पा लेते हैं तब आपके अन्दर साक्षित्व आ जाता है। माने ये कि किसी भी चीज़ को ल्यूशन की परिपूर्णता है। पहले तो हम अमीबा थे , वहाँ से आप नाटक की तरह देखते हैं। वास्तविक में भी ये एक नाटक है, एक लीला है। कृष्ण ने ही इसको लीला माना। राम ने जब नाटक दिखाया तो ऐसा लगता था कि उसमें बह ही गये। लेकिन कृष्ण की सिर्फ लीला थी इसलिए उनको पूर्णअवतार कहते हैं। जब मनुष्य पूर्णत्व की ओर आता है तब सारे संसार की ओर देखता है कि एक नाटक चला। पागलों जैसे लोग कूद रहे हैं। उसमें वो भ्रमता नहीं। उसमें वो दुःखी नहीं होता। उसमें वो सुखी नहीं होता। देखिए आनन्द की भावना में, जो कि एक भावना है उसमें वो समाया रहता है। ये श्रीकृष्ण की शक्ति है। | श्रीकृष्ण शक्ति के हम दो अंग (शरीर के हिस्से) हैं। एक तो लेफ्ट और राइट और एक सेंटर। सेंटर की जो शक्ति है वो विराट की ओर ले जाती है। लेफ्ट और राइट की शक्ति में से जो लेफ्ट की शक्ति है, जिस आदमी में बहुत ज़्यादा गिल्ट हो जाए और जो सोचे कि भाई, मैंने बहुत बड़ी गलती कर दी। मेरी बड़ी गलत बात हो गयी। मैंने बड़ा गलत काम किया और मुझे ऐसा नहीं करना | चाहिए था। ये फैशन आजकल उधर बहुत है। जब कि आप डेवलपमेन्ट पे पहुँच जाते हैं, बहुत ज़्यादा डेवलप हो जाता है तब आप में ये चीज़ सेटल हो जाती है। पहले तो आप एक्स्ट्रीम पर जाइये और ‘मैं ये हूँ, मैं वो हूँ। मुझे आगे प्रोग्रेस करना चाहिए।’ जिधर अब अपना देश चढ़ा जा रहा है। और जब उतरने पे आ जाते हैं, तब वेस्टर्न कंट्रीज में ये शुरू हो गया है कि जिसको देखो वो सुबह से शाम तक रोते बैठता है और रोये जा रहा है। तो मैंने कहा कि ‘क्या हुआ?’ तो कहने लगे कि, ‘मैंने बहुत पाप किए हैं माँ। मैंने ये किए हैं।’ मैंने कहा, ‘अरे छोडो उन बातों को। अभी पार हो जाओ |’ तो वो रोये इसी चीज़ पर, रात-दिन उनका रोना सुन- सुनकर आदमी परेशान हो जाता है। इतने रोते हैं कि हमारे पूर्वजों ने जा कर के हिन्दुस्तान जैसे योगभूमि पर आक्रमण किया है । | आज-कल के वहाँ के नवयुवक जो हैं वों बहुत अलग तरह के हैं जिन नव युवकों को हमने पहले देखा था वो और ही हैं। ये और हैं। अब ये लेफ्ट साइड में जब जाने लग जाते हैं विशेषत: इसमें मनुष्य मादक वस्तु लेने लग जाता है क्योंकि उसको ये लगता है कि ‘मैंने ये गलती करी। मैंने वो गलती करी। अब मैंने ये पाप किया है। ये झूठ बोला है। मुझे ये नहीं करना चाहिए था।’ तो मनुष्य मादक द्रव्य लेने लग जाता है। इसमें से एक वस्तु जो है जो हमारे अन्दर बहुत चलती है सिगरेट और बीड़ी और उसके बाद है तम्बाकू खाना। तम्बाकू खाना भी इस शक्ति के विरोध में बहुत बैठता है। आपको आश्चर्य होगा कि जो आदमी तम्बाकू खाता है उसको सहजयोग में आने के बाद इसे छोड़ना ही पड़ता है। ये छूट जाता है।
एक साहब थे जिन्होंने नहीं छोडी। वो अपनी विल पावर नहीं बढ़ा पाए और छोड़ नहीं पाए। तो कभी -कभी चोरी छिपे वो तम्बाकू खाते रहे। एक दिन आकर मुझसे कहने लगे कि, ‘माँ, जब मैं ध्यान में बैठता हूँ तब मेरा मँह फूलते जाता है । टेढ़ा – मेढ़ा होता रहता है। मुझे समझ में नहीं आता है कि मैं क्या करूं?’ मैंने कहा कि, ‘मुझे मालूम है कि क्या बात है। आप अपनी तम्बाकू छोड़ दीजिए। आज वचन दीजिए आप तम्बाकू छोड़ देंगे। उस दिन हुआ कि उनका ये चक्र जो लेफ्ट साइड का है वो खुल गया और तब से इनकी कुण्डलिनी ठीक से चलने लग गयी। अब उसी प्रकार आपने देखा है कि वेस्टर्न कंट्रीज में लोग क्योंकि इगो- ओरिएन्टेड बहुत थे। पहले बहत इगोइस्टिकल बातें करीं। वॉर किया। दुनियाभर के लोगों को मारा और अपना साम्राज्य फैलाया। सब किया। अब जब एक हद पर पहुँच गए और फिर वहाँ से जब पेन्ड्यूलम चला तब दूसरे हद तक पहुँच गये और वहाँ जाकर के देखा कि ‘बाप रे, बाप रे, अब हम क्या करें! तो अब हम कैसे करें, क्या करें? हम इतने बुरे, हम उतने बुरे।’ ये जब दिखाई दिया 6. तो चलो शराब पियो। शराब नहीं तो चलो, तम्बाकू खाओ। नहीं तो किसी तरह से वहाँ से भागना शुरू किया। अब जो है वो पीने पाने के लिए भगवान ने नहीं बनायी है। आदमी की अकल इतनी ही है क्या करे? ये पीने-पाने के लिए बनायी नहीं है भगवान ने तम्बाकू । ये चीज़ जो बनायी है, ये इनसेक्टिसाइड है, इनसेक्ट्स को मारने के लिए बनायी है। आप लोगों ने पता नहीं उसे कहाँ से जला लिया और शुरू कर दिया कि ‘तम्बाकू करें’ लेकिन तम्बाकू बड़ी हानिकारक चीज़ है और तम्बाकू से जो है तम्बाकू चीज़ हमारा गुरुतत्व भी खराब हो जाता है। ये पेट में जाती है और लीवर वरगैरा सबको खराब कर देती है। अब ये गुरुतत्व जो है वो हमारे सागर में भरा हुआ है। ये जो सागर है वो हमारा गुरू है। जब हम कभी भी गुरुतत्व के खिलाफ चलते हैं तब सागर बिलकुल भी बिगड़ जाता है और बिगड़ करके तहस-नहस करना शुरू कर देता है। मैं एक बार वहाँ गयी थी गुंटूर में, आंध्र के लोग थे। मैंने उनसे कहा कि, ‘आप यहाँ पर महेरबानी से ये जो तम्बाकू लगा रहे हो, ये मत लगाओ।’ तो कहने लगे कि, ‘हम अपने देश वालों को नहीं देते हैं । हम तो सारे बाहर भेजते हैं।’ मैंने कहा कि, ‘तुम्हारे देश वाले। यहाँ आंध्र के जो गरीब लोग हैं वो इसे खाते हैं और काली विद्या करते हैं और तुम लोग इसे एक्सपोर्ट करके इसमें भी एक भयंकर हिस्सा ले रहे हैं।’ तो कहने लगे कि, ‘नहीं, नहीं माँ, इसके बगैर तो हम मर जाएंगे।’ तो मैंने कहा कि, ‘कोई नहीं मरने ने वाला है। आप यहाँ पर कपास लगाईये और कपास से सब ठीक हो जाएगा। कुछ इनमें से कहा कि, ‘अच्छा माँ हम कपास टैप पर भी लगायेंगे। हम कपास की शुरुआत करेंगे’ और फिर काफी बिज़नेस उनका हो गया लेकिन जब मैंने दो-तीन बार कहा, मेरा है लेकिन एक दिन जब वो बहुत मुझसे डिस्कस करने लगें तो मैंने कहा कि, ‘खबरदार, अब ज़्यादा मत डिस्कस करो अगर तुमने ऐसा जो किया तो ये समुद्र जो है ये तुम पर बिगड़ेगा ।’ आपको तो मालूम है कि उसके बाद आंध्र में कितनी जोर की तूफान आयी थी और कितने ही लोग तहस-नहस हो गए थे और उनको पता भी नहीं चला कि वो कहाँ रह रहे हैं। हमेशा आपने देखा कि समुद्र के बड़े-बड़े तूफान आते हैं और लोग उसमें सत्यनाश हो जाते हैं। किसी से अगर कहो कि ‘तम्बाकू लगाना बन्द करो। ये बहुत अशुभ चीज़ है’ तो कोई सुनने को तैयार नहीं है | अब वहाँ पर सब खारी जमीन हो गयी है, वहाँ अब तम्बाकू लगा नहीं सकते। किसी तरह से तम्बाकू बढ़ नहीं सकती। तो अब वो अपने नसीब पर रो रहे हैं। सारा वहाँ जो एरिया है, जहाँ तम्बाकू लगता है और हमेशा बड़े-बड़े आप जानते हैं साइक्लोन्स आते हैं। वहाँ मरते हैं। जिस दिन लोग इस चीज़ को समझ लें कि तम्बाकू लगाने से और काली विद्या करने से, समुद्र हमसे नाराज हो जाता है , उस दिन वो समझ जाएंगे कि कितना परमेश्वर का हमें आशीर्वाद है । कितनी सुन्दर हमारे पास जमीन है, उसका उपयोग हम कोई और चीज़ करने में लगायें । लेकिन मनुष्य को छोटी चीज़ में समाधान नहीं होता। वो चाहता है कि संसार में जितनी भी सम्पत्ति है वो मैं ही ले लूँ। लेकिन वो ये नहीं देखता है कि, जिसके पास है सम्पत्ति वो कौनसा बड़ा सुखी बैठा है। वो | कौन बड़ा आनन्द में बेठा हुआ है। तो ये जो लेफ्ट साइड की जो शक्ति है जिसे कि हम विष्णुमाया की शक्ति कहते हैं। ये बहन की शक्ति है, जो विष्णुमाया आप जानते हैं कि श्रीकृष्ण की बहन जो कि मारी गयी थी और जो आकाश में जाकर के जिसने आकाशवाणी की थी कि मारने तुम्हारा वाला हत्यारा अभी भी जीवित है। वही ये विष्णुमाया की शक्ति हैं। और ये बहन के रिश्तेदारी की बात है। अगर आपकी बहन
बीमार हो तो आपका ये चक्र पकड़ जाएगा। आपके बहन को अगर कोई तकलीफ हो तो आपका ये चक्र पकड़ जाएगा। अगर आपकी रिश्तेदारी बहन के मामले में ठीक न हो, माने आप किसी को बहन मानते हो और अगर आपकी नज़र खराब हो । आजकल तो लोगों का ये चक्र बहुत खराब रहता है। क्योंकि इनमें पवित्रता नहीं है। अपनी पत्नी के अलावा सब औरतों को | अपनी बहन या माँ मानना चाहिए। ये जो शास्त्रों में लिखा है इस पर लोग हंसते हैं कि, ‘ये कैसे हो सकता है, माँ ये तो हो ही नहीं सकता।’ क्योंकि सब लोग कुत्ते हो गये हैं ना? कुत्तों को तो समझ में आती नहीं है बात कि इस तरह से भी कोई पावित्र्य होता है। आप करके देखिये कि आप सिर्फ अपनी छोड़ करके दूसरी अन्य औरत को अपनी बहन की तरह देखना है। देखिये कितना सन्तोष आपके अन्दर आएगा। कितनी प्रॉब्लम सॉल्व हो जाएंगी। कितना समझ विकसित हो जाएगा। अभी देखिए पहले के जमाने में लोग घर में आते थे, रहते थे। कोई भी प्रॉब्लम नहीं रहती थी। विशेषत: विलायत में देखिए, विलायत में ये हालत हो गयी है कि हमारे शिष्य जो थे उनकी उमर सिर्फ २६ साल की थी और उनकी माँ की उमर थी समझ लीजिए कुछ ४२ या ४३ थी उनके घर में उनके एक दोस्त साहब आ गये थे रहने को। तो वो उनकी माँ उनके साथ भाग गयी थी। वो साहब २४ साल के थे। बेटे से २ साल छोटे थे। उनकी माँ इनके साथ भाग गयी। माने, किसी चीज़़ का सेन्स आफ प्रपोर्शन ही नहीं रहा। आप सोचिए कि लड़के का | दोस्त घर में आया और उसकी माँ उसके दोस्त को लेकर के भाग गयी। अभी आने से पहले हमने एक आर्टिकल पढ़ा जिसको सुनकर आप हैरान हो जाएंगे कि सतरह साल के लड़के ने अपने माँ से शादी कर ली और जाकर के अभी कोर्ट में लड़ाई कर रहे हैं दोनो माँ-बेटे कि हमारा मंजूर होना चाहिए कि हमने शादी की है। ये सारी बायीं तरफ की अपवित्रता है। ये हमारे सिनेमा वालों को भी अकल नहीं है, ये इतना पाप कर रहे हैं कि इसका फल | उनको भोगना पड़ेगा। सबको अपने पाप का फल भुगतना पड़ता है। इस तरह से जो हमने अपने अपवित्र हालत कर दी है, हमारी शक्लें देखिए कैसी हैं? इसमें न कोई तेज है, न इसमें कोई भोलापन है, न इसमें कोई सादगी है। एक तरह से, हर समय में आँखे चलाना। ये जो आँखे चलाने की बीमारी है ये कृष्ण शक्ति से ही दंडित होती है। आप देखिए कि मनुष्य हर समय में आँखे चलाता रहता है। आँखे चलाने से आपके अन्दर भूत घूस आता है। आपको पता नहीं कि अगर लेफ्ट साइड से आपके अन्दर भूत घूस आएं तो आपकी आँख चलने लगती है, आप कुछ करते ही नहीं, आँख चलाने के सिवाय आप करते ही क्या है ! आँखे चलाने से आपको तो कुछ आनन्द तो आता ही नहीं है। एक मिथ्य है, इसमें आँख घूम रही है, इधर से उधर चल रही है। इसको देख रही है, उसको देख रही है और आपका जो विशुद्धि चक्र है लेफ्ट साइड का, वो पकड़ा जा रहा है। इस लेफ्ट साइड के पकड़ने से गिल्ट बनता जाएगा। हर समय आप कभी भी सुखी नहीं रह सकते। आदमी को, इसलिए पहले जब हम छोटे थे तो हमारे माता-पिता कहते थे कि आँख अपनी जमीन पर रखकर हमेशा चलना चाहिए। आपने सुना होगा कि लक्ष्मणजी ने सीताजी के सिर्फ पाँव तक के अलंकार देखे थें। उसके ऊपर उन्होंने देखा ही नहीं। क्या उनको, वो कोई दुष्ट आदमी थे या कोई बुरे आदमी थे। ये क्या कानून था कि आप अपनी आँखे नीचे करके चलें। शहनशाह लोग जो थे वो हमेशा अपनी आँख नीचे करके चलते थे जो बिल्कुल हमेशा भिखारी, भूत जैसे थे, वो इधर-उधर देखकर चलते थे। जो आदमी खुद अपनी शान में, प्रतिष्ठा में होता है उसको क्या पड़ी किसीको क्या देखने की। और आपको पता होना चाहिए कि आप जैसे ही दूसरों को देखते हैं, उनकी जो गुणवत्ता है, उसकी जो बुराई है वह आपके अन्दर आ जाती है। उसके अन्दर बसे हुए जो, जो कंडिशनिंग है वो आपके अन्दर आ जाती है। और ये इतनी ज़्यादा बीमारी बढ़ गई है लोगों में इस कदर लोग इससे भरे हुए हैं कि ये समझते नहीं है कि इससे हम आँखें कैसे बचाएं। इससे आँखे लाल हो जाती है। आदमी की आँखों में कमजोरी आ जाती है। आँख बहत तकलीफ देने लग जाती है। तभी बताया जाता है कि आप हरी घास पर चला करें, पृथ्वी माँ पर चला करें, जो आपकी माँ है। माँ को जानने से ही आप बहन को समझेंगे। जब तक आप अपनी माँ को नहीं जानिएगा तो बहन को समझ नहीं पाओगे। लेकिन वास्तविकता ये है कि आँख नीचे नतमस्तक होकर रखें और रास्ते में चलते वक्त या किसी की ओर देखते वक्त बुरी दृष्टि से नहीं देखना चाहिए, ये पाप है। और गुरू ने भी इसे कहा है कि Thou shall not commit adultery और क्राइस्ट ने आकर के उसकी ओर होकर कहा कि Thou shall not have adultery eyes। उन्होंने साफ कह दिया कि Adulterous eyes are equally evil as adulterous life | इस पवित्रता पे उन्होंने आपको पहुँचा दिया और उम्मीद की थी। लेकिन आज जहाँ संसार पहुँचा हुआ है कि अगर आज हम ये बात कहेंगे तो भी
वो बुरा मान जाएंगे। लेकिन आप कोशिश करके देखिए, आपके जीवन में और बाकी सबके जीवन में इतनी सरलता और इतना सौन्दर्य आ जाएगा कि आँखो को चलाना और अपने को नीचे गिरा लेना जिसको कि आगे चलकर प्रोस्टिट्यूशन आदि कहते हैं। अब आजकल के जो गाने हैं, औरतों को बैठ कर गाने का ढंग आदि वगैरा इस कदर छिछलापन और इस कदर अपने को चीप कर लेने के तरीके हैं कि समझ में नहीं आता, खासकर अपने मध्यमवर्गीय लोगों को इसकी क्या पड़ी है। आदमी पैसे वाला है तो बचने वाले नहीं है। उनके पास तो साधन ही मिल गया है । जिसके पास अति पैसा है उसको लगता है कि मैं क्या करूँ या क्या न करूँ। इस पैसे को कौनसे ग्ढे में डालँ और मैं भी उसके साथ कूद जाऊँ। जैसे ही उसके पास में पैसा आता है, वो सोचता है कि मैं रेस में जाऊँ और फिर ये करू और फिर वो करूँ। आज इसलिए मैं पाप-पुण्य की चर्चा कर रही हूँ क्योंकि गुरू की बात हो रही है। पाप-पुण्य का विचार आपको इस विशुद्धि चक्र पे आता है, पाप और पुण्य क्या हैं? अगर आपको पाप-पुण्य का विचार विशुद्धि चक्र तक नहीं आया तो आप काम से गये। आपकी कुण्डलिनी जागृत नहीं होगी। संसार में पाप व पुण्य दोनों चीज़ हैं। लेकिन ये सोचते हैं कि माँ ये इतना पापी आदमी है फिर भी देखो, इसकी इतनी प्रगति हुई है। मैंने कहा कि, ‘आप इनके घर में जाकर देखो क्या हो रहा है। उसके जीवन में देखो क्या उसकी प्रगती हुई है? इस आदमी के मुख पर जरा भी आनंद है? जिस आदमी का नाम लेते ही लोग कहते हैं, ‘बाबा रे बाबा किसका नाम ले लिया !’ जिस आदमी के पीठ पीछे कभी भी कोई आदमी अच्छी बात नहीं कहता, ऐसे आदमी, ऐसे चरित्रहीन, ऐसे गिरे हुए लोगों को अगर आप आदर्श मानिएगा तो आपका भी ठिकाना नहीं रहेगा। हमारे सहजयोग में आप जब पार हो जाएंगे तब आपके अन्दर शक्ति आ जाएगी। आप स्वयं ही अपनी प्रतिष्ठा को जानिएगा क्योंकि आप खुद प्रतिष्ठित हैं। आप जानते नहीं है कि परमात्मा ने कितनी मेहनत से इस चक्र को आपके अन्दर बनाया है। इसको कितनी सुन्दरता से बनाया है। इसको किस तरह घड़ाया है और इस कुण्डलिनी को किस तरह से सुरक्षित रखा हुआ है। आप अपना ही अपमान कर रहे हैं। अपने को ही नीचे गिरा रहे हैं। अपने को समझें। अपने बडूपन रूपांतरित होना है। को समझें। हालात को आप समझें। आप तो सारे संसार के फूल हैं और आपको फल में जब आप इस चीज़ को समझें कि आप ही परमात्मा के अंश हैं, परमात्मा आप ही को मानता है और आप ही के सामने झुक रहा है और आपसे कह रहा है कि आप इसको पा लीजिए, जो आपका श्रेय है। श्रेयों को पहचानना भी सुबुद्धि का काम होता है। जब तक उसके अन्दर दुर्बुद्धि बनी रहेगी वो कर नहीं सकता है। ये सुबुद्धि भी विशुद्धि चक्र की जागृति से होती है। जब मनुष्य का अपना विशुद्धि चक्र जाग उठता है तब उसके अन्दर अपने आप सुबुद्धि आ जाती है। उसके अन्दर सन्तुलन आ जाता है। एक होती है सुबुद्धि और दूसरी है दुर्बुद्धि। बुद्धि से कोई भी फर्क नहीं पड़ने वाला है। बुद्धि गधे की तरह भी हो सकती है और बेवकूफ भी हो सकती है। बुद्धि के रॅशनॅलिटी से आदमी चोरी करता है। वह कहता है कि, ‘मैं क्यों न चोरी करूँ? मेरे पास ये चीज़ नहीं है, उसके पास है। तो मैं क्यों न चोरी करूँ।’ इसका कारण तर्कबुद्धि है। अब देखिए तर्कबुद्धि के कारण मनुष्य हर एक चीज़ की तरफ व्यक्तिगत विचार से देखता है। लेकिन सुबुद्धि जो है वो कहेगी कि, ‘नहीं, इसकी ये चीज़ इसकी अपनी है और मेरी ये चीज़ मेरी अपनी है। मेरी चीज़ में जो मजा आ रहा है वो दूसरों की चीज़ में नहीं है।’ कोई भी चीज़ किसी की नहीं होती। सभी चीज़ यहीं छोड़ कर जाना हैं। ये तो दिमागी जमा-खर्च है कि ये मेरी चीज़ है। ये तेरी चीज़ है। ये रजिस्ट्रार ऑफिस में लिखा है। जाते वक्त सब कुछ यहीं छोड़ कर जाना है। एक तो ये साधारण सी बात है इसके पीछे इतनी भागदौड़ क्यों कर रहे हो । अब राइट साइड के हमारे जो चक्र हैं, जो कि राइट साइड की विशुद्धि चक्र का ये है कि ये श्रीकृष्ण और राधा की शक्ति से बना है। श्रीकृष्ण और राधा की जो शक्ति है, उससे जब मनुष्य उसके विरोध में खड़ा होता है तो कंस जैसा हो जाता है कि मैं ही बड़ा राजा हूँ, मैं ही बड़ा भारी लीडर हूँ और मैं ही सब कुछ हूँ, तो उसके अन्दर अहंकार कंस के जैसा बढ़ता है, कि किस तरह से मैं ही सब के ऊपर राज्य करूं। उसको दुनिया की कोई भी चीज़ दिखाई नहीं देती। उसे राइट साइड की विशुद्धि चक्र की पकड़ होती है। लेकिन राइट साइड की विशुद्धि चक्र पकड़ तब शुरू होती है जब आपको सर्दी- खाँसी होती है। अब सब लोग कहते हैं कि सर्दी-खाँसी के लिए तुलसी बहत अच्छी होती है। इसकी वजह ये है कि तुलसी से लेफ्ट साइड की जो शक्ति है वो बैलन्स कर देती
है राइट साइड में। जुकाम का होना वैसे तो कोई सीरीयस बात नहीं है पर हमारे सहजयोग में जुकाम के लिए व्यवस्था भी बहुत अच्छी है और उसके लिए भी अगर आप जान लें कि किस तरह से आपका जो सर्वसाधारण जो जुकाम है सायनस वगैरा के प्रॉब्लेम है वो ठीक हो सकती है। लेकिन बीच की जो शक्ति है जिसे विराट की शक्ति कहते हैं। ये सबसे महत्वपूर्ण है। आज संसार में जहाँ भी लोग कुछ न कुछ खोज रहे हैं, जहाँ कि मनुष्य परमात्मा की खोज में लगा है। वो अपने wholesomeness को, विराट को खोज रहा है। या यह खोज रहा है कि अगर मैं विराट का एक हिस्सा हूँ तो मैं उसको खोजूँ जिसका मैं हिस्सा हूँ। इसका मतलब ये है कि हमारी वो चीज़ जिसे सामूहिक चेतना कहते हैं, वो अभी तक नहीं आयी। हम कहते हैं कि ‘आप भाई हैं, आप बहने हैं। बड़े-बड़े लेक्चर देंगे कि ये स्थापित हुआ है इसलिए फिट है, माने इन्सान का ये है कि जो होने वाला है उसका नाटक पहले कर लेता है। जैसे कोई रिहर्सल हो। ये एक रिहर्सल सा लगता है कि आप भी भाई है, आप भी बहन है। आप सब लोग भाई-बहन हैं। सब लोग सामूहिक एक हैं। वास्तविक अभी तक ये सब झूठ बात है आपके लिए, हमारे लिए नहीं। जब आप सहजयोग में आ जाते हैं आपकी सामूहिक चेतना जागृत हो जाती है। सामूहिक चेतना जागृत होते ही आप महसूस करने लगते हैं कि दूसरा जो है वो मेरे अन्दर है और मैं उसके अन्दर हूँ। आप खुद ये देखने लगते हैं क्योंकि जब absolute पॉइंट जब आपको मिल जाता है तब आप रिलेटिव स्टेज में चले जाते हैं। आप कहाँ हैं इस absolute पॉइंट के इसमें और वो कहाँ हैं। अब सादे शब्दों में बताना ये है कि ये जो आपके उंगलियों के जो चक्र है वो जागृत हो जाते हैं। ये १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ये सातों चक्र लेफ्ट सिम्परथैटिक और राइट सिम्पथैटिक पर जागृत हो जाते हैं फिर ये जागृत हो जाते हैं तो इसमें क्या महसूस होने लग जाता है? इसमें ऐसा महसूस होता है मान लीजिए आपके सामने कोई खड़े हैं हाथ ऐसा करके। तो मैं तुरन्त बता दूँगी कि उसमें क्या बीमारी है। वो मैं कैसे समझ लेती हूँ? समझ लीजिए कि अगर मेरे राइट हैण्ड के इस उंगली में चमक आई या कुछ गरमी सी लग रही है तो मैं जान जाऊंगी कि इनके लिवर में खराबी है क्योंकि ये जो है ये नाभि चक्र है राइट हैण्ड साइड का और नाभी चक्र राइट हैण्ड साइड पर लिवर का स्थान है। उसके बाद में छोटी-छोटी फ्रिक्वेन्सी भी आदमी पकड लेता है। यहाँ तक कि जब आदमी आगे बढ़ता है। सहजयोग में तो उसके अन्दर वैसी ही भावना आने लग जाती है जैसी सामने में दूसरे की होती है। और जब लगता है कि लिवर में हेवीनेस और अगर आप पूछते हैं कि आपका लिवर हैं? तो वो कहता हैं कि हाँ, लिवर है। आप अपने हाथ ऐसे-ऐसे रगडिए। आपका भी लिवर ठीक होगा और उसका भी लिवर ठीक होगा। अगर किसी आदमी को सरदर्द हो रहा है तो उसके पास जाईये तो आपका भी सिर थोड़ा सा भारी हो जाएगा । आप कहियेगा कि ‘सिरदर्द हो रहा है?’ तो कहेगा ‘हाँ।’ उसके बाद उन्होंने अपना सिर ऐसे दबा करके ठीक कर दिया। उस आदमी का देखिएगा कि उसका भी सिरदर्द ठीक हो जाएगा। कलेक्टिव कॉन्शसनेस आपके अन्दर जो आती है, सामूहिक चेतना आती है ये सब्जेक्टिविटी है। माने ये असल में आती है, माने ये अॅक्च्युअलाइजेशन होता है इसका। ये सिर्फ बातचीत नहीं होती है, ये हो ही जाता है। आपकी जो चेतना है वो इस स्तर पर आ जाती है। एक नया आयाम उसके अन्दर खुद आ जाता है। जिसके अन्दर आप सामूहिक चेतित हो जाते हैं। वो कहे अगर रियलाइज्ड होगा तो वो भी बतायेगा कि नानी इनको देखिये , इनके हार्ट में पकड़ है। तो हार्ट आपका पकड़ रहा है। हार्ट पर प्रेशर है | आपके। ये तो फिजिकल हो गया, इमोशनल भी आप बता सकते हैं। बहत से लोग तो ऐसे लगते हैं ऊपर से वो होशियार लगते हैं पर अन्दर से तो पागल होते हैं। उसके पास गये तो दो ऐसे झापड़ मारते हैं आपको। लेकिन अगर आप रियलाइज्ड सोल हो तो आप जान जाओगे कि ये पागल हैं। आपको ये पता चल जाएगा यानी आज्ञा चक्र कहाँ है। यानी लेफ्ट साइड के अगर कोई न कोई चक्र पकड़ते हैं तो उसमें कोई न कोई मानसिक विकृति आ गयी है, कोई न कोई लेफ्ट साइड के आते हैं। राइट साइड के आते हैं तो फिजिकल और इमोशनल होते हैं। ये अपने विशुद्धि चक्र से कनेक्टेड है । बहुत से लोग पार हो जाते हैं, पर वो उनके अन्दर वायब्रेशन्स को फील नहीं कर पाते हैं, इसका कारण है विशुद्धि चक्र की खराबी। क्योंकि विशुद्धि चक्र मैंने बताये है कि आपके सिगरेट पीने से खराब होती है। शहर के वातावरण में आप सिगरेट नहीं भी पीते हैं तो एक आपके समझ लीजिए कि आपके पिताजी सिगरेट पीने वाले में से हों जो कुछ है तो ये जो विशुद्धि चक्र है यहाँ खराब हो जाता है।
विशुद्धि चक्र अगर खराब हो जाता है तो विशुद्धि चक्र में से निकलने वाली जो दो नसे है, जिसे कि हमारे अन्दर, हमारे सेंट्रल नर्वस सिस्टम में ये जब चेतना आती है जब हम चेतित भी होते हैं तो भी हम इसे महसूस नहीं कर पाते। क्योंकि हमारी संवेदना खत्म हो जाती है। हमारी संवेदना इस चक्र से बढ़ सकती है अगर हमारा विशुद्धि चक्र पूरी तरह से जागृत होता है। तो इस चक्र के भी मन्त्र है ये समझ लेना चाहिए, उस मन्त्र के लिए कहे गये मन्त्र, बतलाये गये मन्त्र कहने से ये चक्र जागृत होता है। ये जो दो उंगलियाँ विशुद्धि चक्र की है अगर इसे कान में ड्राल कर के सर यूँ पिछे कर के अगर आप ‘अल्लाह हो अकबर’ अगर तीन बार कहें तो आपका ये चक्र साफ होगा। क्योंकि अकबर जो है वो विराट है। मोहम्मद साहब ने ये बात कही थी, कृष्ण की बात कही थी लेकिन कौन सुनता है? उन्होंने जो भी कुछ बताया कि इस तरह से हाथ करिए और फिर नमाज पढ़िए तो सारी कुण्डलिनी जागृत होगी लेकिन अगर ये किसी मानव को जाकर बताएंगे तो वो मुझे मारने को दौडेंगे। मोहम्मद साहब भी साक्षात दत्तात्रिय के अवतरण थे और मैं कहती हैँ कि कुण्डलिनी जागृति में उन्होंने जितना कार्य किया है उतना और किसी ने नहीं किया। शैतान को कैसे निकालना चाहिए? इसके उन्होंने कुछ तरिके बतायें हैं, वो एक से एक अभिनव है। जिसे हम अभी भी करते हैं अधिकतर। सहजयोग में हम उन्हें भी इस्तेमाल करते हैं अभी तक। हांलाकि हमारे पास आदि शंकराचार्य जैसे लोग हैं जिन्होंने तो बड़ी कमाल की चीज़ें लिख दी है और उनकी जो बारिकियाँ है अगर आप उन सारी बारिकियों को फॉलो करें तो आप पूरी तरह से स्थित हो जाते हैं। जिसके हमारे ऊपर अनेक उपकार हैं, इस देशपर, इन संतों-साधुओं के और इन बड़े-बड़े अवतारों के। ऐसे-ऐसे महान अवतार इस योगभूमि में हुए हैं, इस संत भूमिपर जिसे हम महाराष्ट्र कहते हैं। अनेक संत-साधुओं ने हमारा रक्त सिंचन किया है । इतनी मेहनत आप लोगों पर की है कि जरासे इशारे पर आप लोग पार होते हैं खास कर जब मैं गाँवों में जाती हूँ तो आप देखते हैं | कि हजारों के हजारो तादात में लोग आज जाते हैं। अब आप देखिए कि हमारे लेक्चर में कितने लोग आएं हैं । यहाँ से शुरुआत है। लोगों को सत्य की पहचान नहीं है। सत्य का खिंचाव नहीं है । वहाँ जा रहे हैं लोग। अगर कोई आदमी कहे कि मैं आपको कपड़े खोलकर नंगे नचवाऊँगा तो आप सब वहाँ चले जाएंगे | पैसा दे कर वहाँ से नाच कर आप आएंगे और आप कहेंगे कि वाह ! वाह! क्या मजा आ गया। ऐसे बेवकूफ लोगों के लिए सहजयोग नहीं है। जो लोग गम्भीर हैं, जिनका कैलिबर है, जिन्हें कहते हैं कि ‘येऱ्यागबाळ्याचे काम नाही’। कोई आपके अन्दर जब तक वो पूरी तरह से श्रद्धा, पूरी तरह से प्रतिष्ठा ना हो तो वो दिख जाता है, उसके लिए ये नहीं है। इसके लिए कॉम्प्रोमाइज करना असत्य से बहुत ही आसान चीज़ है ऐसे व्यक्ति पर सहजयोग नहीं चलता । सहजयोग प्राप्ति के लिए बहुत बड़े पंडित या ज्ञानी होने की जरूरत नहीं है लेकिन दिल के पक्के होने चाहिए। शहनशाह किस्म के होने चाहिए। ऐसे आदमी पर सहजयोग यूं काम कर जाता है। अब कृष्ण शक्ति पर मैंने कहा कि बताने लगू तो साल बीत जाएगा। उसके सारे सोलह पड़दे खोलने के लिए और बताने के लिए काफी चीज़ चाहिए। और कुण्डलिनी क्या चीज़ है आज तक आपको पता नहीं। आपने देखा नहीं है। जिसे आपने देखा नहीं, जाना नहीं उसे आप जान सकते हैं। उसका स्पंदन आप अपनी नज़र से देख सकते हैं। उसका चढ़ना आप देख सकते हैं। उसका भ्रमण आप देख सकते हैं। अब ये चीजें अलग ही है, आपने जानी नहीं है। परायी चीज़ें हैं अभी आपने जाना नहीं, पर हैं। जैसे कि यहाँ पर अनेक चित्र है इस वक्त। आप नहीं देख पाते| आप टेलिविजन लगाइये, आप देख सकते हैं। अनेक यहाँ पर संगीत हो रहे हैं आप सुन नहीं सकते। लेकिन अगर आप रेडियो लगायेंगे तो आप सुन सकेंगे। उसी तरह से, ये परमात्मा की शक्ति सब तरफ दूर तक विराजमान है। अणू-रेणू, सब चीज़ में परमात्मा की शक्ति भरी हुई है। कुण्डलिनी अगर जागृत हो जाए, उसका अगर कॉर्ड मेन से लग जाए तो फिर उसका परमात्मा से संवाद शुरू हो जाता है। फिर इन्ही हाथों पर जिसको कि आप सोचते हैं कि ये विशेष नहीं है, इन्हीं हाथों पर आप जान सकते हैं, आप इस तरह से हाथ करके पूछिए कि ‘क्या संसार में परमात्मा हैं?’ तो आप देखेंगे कि आपके अन्दर ठण्डी-ठण्डी लहरें चलने लगेंगी । अपने प्रति प्रेमभाव होना चाहिए, आदर होना चाहिए, अत्यंत प्रेम होना चाहिए। क्योंकि परमात्मा ने आपको इसलिए नहीं बनाया कि आपका जीवन व्यर्थ हो जाए। किसी भी तरह से नहीं बनाया। अगर आपका जीवन व्यर्थ हो गया तो परमेश्वर का भी कोई अर्थ नहीं रहने वाला है। सृष्टि का भी कोई अर्थ नहीं रहेगा। ये अपने प्रति आदर रखते हुए और प्रेमभाव रखते हुए, पूरी आशा से ही आप इस कार्य में संलग्न रहो। सर्वव्यापी परमेश्वर के साथ चैतन्य लहरियों से आप बात कर सकते हैं क्योंकि ये परमेश्वरी शक्ति सारे चराचर में भरी है। आप सबको अनन्त आशीर्वाद!