Do Sansthaye – Man Aur Buddhi , Seminar for the new Sahaja yogis Day 2

Cowasji Jehangir Hall, मुंबई (भारत)

Feedback
Share
Upload transcript or translation for this talk

१९८०-०१-२९, नए सहज योगियों के लिए सेमिनार दिन २, कोवासजी जेहांगीर हॉल, मुंबई (भारत)

१९८०-०१-२९, नए सहज योगियों के लिए सेमिनार दिन २, बोर्डी

[हिंदी अनुलेख]

कल आपको प्रस्तावना मैं मैंने बताया, कि जो आप हैं वो किसलिये संसार में आये हैं। परमात्मा ने आपको इतनी मेहनत से क्यों इन्सान बनाया? और इस इन्सान का क्या उपयोग है? इसके लिये परमात्मा ने हमारे अन्दर जो जो व्यवस्था की है वो अतीव सुन्दर है। और बड़ी मेहनत ले कर के बड़ी व्यवस्था की गयी। और सारी तैय्यारियाँ अन्दर जुट गयी। लेकिन जिस वक्त मनुष्य को स्वतंत्रता दी गयी, जब मनुष्य ने अपनी गर्दन ऊपर उठायी और जो पूर्ण मानव हो गया। तो उसने अपनी स्वतंत्रता को भी पा लिया था। उसके अन्दर दोनों शक्तियाँ जिसके बारे में मैने कल बताया था, इड़ा और पिंगला की शक्ति। इड़ा जिससे की हमारा अस्तित्व, एक्झिस्टन्स बनता है, और पिंगला की जिससे हम सृजन करते हैं, क्रियेटिव होते हैं, ये दोनों ही शक्तियाँ कार्यान्वित होने के कारण हमारे अन्दर मन और बुद्धि या मन और अहंकार नाम की दो संस्थायें तैय्यार हो गयी। ये संस्थायें आप अगर देखें तो सर में दो बलून की जैसे हैं। जो कि आपको यहाँ दिखायी देगी। ये सर में दो बलून के जैसे हमारे अन्दर बन गयीं इसे अंग्रेजी में इगो और सुपर इगो कहा जाता है । ये संस्थायें तो वहाँ पे घनीभूत होने के कारण वहाँ की जो तालु की जो …. कर लें, बिल्कुल बीचोबीच …. हड्डी हैं, जिसे फॉन्टनेल बोन कहते हैं, वो कॅल्शियम से पूरी तरह से घिर गयी, माने कॅल्सिफाइड हो गयी। माने जो जा कर के नरम हड्डी थी, वो एकदम सख्त हो गयी। ये होने के कारण ही आप मिस्टर ये हैं, आप मिसेस वो हैं, आप मिस वो हैं । इसी कारण आप सब में जो अहं पन है, जो ‘मैं’ हैं, ‘मैं ये हूँ, मैं वो हूँ।’ ये सब इसी वजह से आयेगा। क्योंकि आप सब उस सर्वव्यापी शक्ति से अलग हो गये। इसके पहले जो कुछ भी आपकी उत्क्रान्ति हुई, माने आप कार्बन अॅटम से ले कर के इन्सान होने तक जो भी आपकी उत्क्रान्ति हुई, जो भी आपका इवोल्यूशन हुआ है, वो अपने आप होते रहा और वो आपके सतर्कता में नहीं हुआ। आपके कॉन्शस माइंड में नहीं हुआ। मैं बीच बीच में अंग्रेजी शब्द इस्तमाल करूँगी। तो जिनको बहत अच्छी से हिन्दी नहीं भी आती वो भी समझ पायेंगे । कॉन्शस माइंड में माने आपके सतर्क चित्त में ये बात नहीं आयी कि आप किस तरह से अमिबा से इन्सान बने। ये आपने जाना नहीं। ये अनजाने में ही होता रहा। लेकिन इसके आगे का जो उत्क्रान्ति का पद है, इसके बाद जो आपको पाने का है वो आपको जानना जरूरी था। ये आप न जानते तो न तो आप परमात्मा को जानते न उसकी मेहनत को जानते, न ही उसकी शक्ति को जानते। न ही उस शक्ति को आप कार्यान्वित कर पाते। इस दशा में जब आ गये, इस दशा में, इस प्रौढावस्था में, इस मॅच्यूरिटी में जब आप आ गये, तभी आपको वो पद मिलने वाला है, जिसे आप अपनी सतर्कता में जानेंगे। अपनी कॉन्शस माइंड से जानेंगे । आप इसको जानियेगा, कि हम कुछ और हैं। हमारे अन्दर कुछ बदल आ गया और इसलिये स्वतंत्रता आपको दी गयी। ये स्वतंत्रता इसलिये दी गयी, जैसी कि एक बच्चे को पहले आप गणित में सिखाते हैं, कि दो और दो चार हैं। उसके बाद उसको एक सवाल आप दे देते हैं। उसको कहते हैं कि सवाल का जवाब ढूँढ के निकालिये| ये सवाल आपको हमने दिया है। ये प्रश्न हमने आपके सामने रखा है। इस प्रश्न का हल आप निकालिये। इसी प्रकार परमात्मा ने आपको इसलिये स्वतंत्रता दी, कि जीवन का प्रश्न जो है, उसे आप अपनी बुद्धि से ही साधें| सब मनुष्य में बुद्धि होती है। बुद्धि में जब तक सुबुद्धि नहीं होती है, विज्ड़म नहीं होती है, तब वो बुद्धि किसी काम की नहीं । सुबुद्धि भी मनुष्य में होती है। जन्मत: ही उसमें सुबुद्धि भी होती है । लेकिन मनुष्य अपनी स्वतंत्रता में इसे खो बैठता है। सुबुद्धि आपके अन्दर होती है और सुबुद्धि से जब आप किसी चीज़ में अपनी स्वतंत्रता में किसी चीज़ को आप खोजते हैं, जब आप स्वतंत्रता में इसको खोजते हैं, तब सुबुद्धि होने पर आप बराबर बीचोबीच मार्ग रहते हैं, जिसे की हम सुषुम्ना का पथ कहते हैं। जिससे पैरासिम्परथॅटिक नर्वस सिस्टीम का मॅनिफेस्टेशन होता है। अब जो लोग इस सुबुद्धि से अपरिचित हैं, या जिन्होंने इसको तिलांजली दे दी, इस विज्डम के पार हो गये। वो एक तो राइट हैंड साइड़ की तरफ बहुत जाते हैं या लेफ्ट हैंड साइड की तरफ बहत जाते हैं। अब इस लेफ्ट हैंड की ओर हमारा अतीत है। हमारा अतीत, हमारा पास्ट लेफ्ट हैंड की तरफ हैं। जो कुछ हमने आज तक किया है वो सब हमारे लेफ्ट में है। हमारी इड़ा नाड़ी में पूरा के पूरा है। इसी से वो संस्था बनती हैं, जिसे की हम मन कहते हैं या तो सुपर इगो कहते हैं। आपने बहुत बार सुना होगा मेरा मन नहीं चाहता। मन है क्या? ये मन आप नहीं है, ये मन है। लोग कहते हैं कि मेरा मन नहीं चाहता करने को। बचपन से बैठी हुई संस्कार, बचपन से बैठे ह्ये दिमागी जमाखर्च और पूर्वजन्म के बैठे हुए जितने भी आपके अनुभव हैं सारे ही आपके लेफ्ट साइड में बैठे हुये हैं। अच्छे, बूरे सब तरह के आपके लेफ्ट साइड़ में बैठे हुये हैं। और आपके राइट हैंड साइड में आपका भविष्य है। राइट हैंड साइड में आप जो सोचते हैं आगे का, ये करने का है, वो करने का है, प्लॅनिंग करने का है, ऐसा करने का है, वहाँ जाने का है, इसे मिलने का है, ये सारा कुछ आपके राइट हैंड साइड में होता है। उसी प्रकार हमारे शरीर की चिंता करना। हमारा शरीर ठीक कैसे रहेगा? शरीर में ये ये तकलीफ़ है, और किसी आने वाले मृत्यू ये सब राइट हैंड साइड में हो जाते हैं। से ड्रना पर सुषुम्ना, जो बीच का स्थान है, वो है आपका प्रेझेंट, माने वर्तमान। मैं आपसे कहूँ कि आप इस वक्त रुक जाईये, इसी वक्त आप यहाँ पर रुक जाये। तो हो नहीं सकता। रियलाइज्ड सोल का होगा, बाकि नहीं रुक सकते । क्योंकि एक विचार उठता है कि वो खत्म हो जाता है। आप उसका उठना देख सकते हैं, गिरना नहीं देख सकते। दूसरा विचार उठता है कि वो भी गिर जाता है। इन दोनों के बीच में जो जगह है, वो विलंब हैं, वही प्रेझेंट है। वो उठा विचार और गिर गया, वो अतीत में चला गया, वो तो पास्ट में चला गया और जो विचार आने वाला है, वो सामने के लिये बना हुआ है। वो आपके भविष्य में, फ्यूचर में है। लेकिन इसके बीच में जो थोड़ीसी जगह होती है, जिसे विलंब कहते हैं, वो जगह, वही प्रेझेंट है और वो हर इन्सान में इतनी छोटी सी होती है, कि इन्सान एक विचार खोपड़ी में आये नहीं कि दूसरे पे कूदा, तीसरे पे कूद रहा है, चौथे पे कूद रहा है, बस हर समय कूदते ही रहता है। इसलिये वो अन्दर उतर नहीं पाता है और यही चीज़ जब कुण्डलिनी ऊपर चढ़ती है, तो ये दोनों ही मन और अहंकार को ऐसे निचोड़ लेती है, ये दोनों ही चीज़े एकदम से, जैसे कि कोई गुब्बारे में से हवा निकल जाये, ऐसे सिकुड़ जाती है और इसके कारण हमारा विलंब स्थापित होता है। इसलिये हम निर्विचार हो सकते हैं। कल जो लोग यहाँ पर पार हुए हैं, जिनके हाथ से ठंडी ठंडी हवा आने लग गयी थी, वो निर्विचार हो गये। 

लेकिन हम लोग इस निर्विचारिता पे रुक नहीं पाते। क्योंकि हमारी आदतें पहले से लगी हुई  हैं । हमारे तौर-तरीके पुराने सालों से चल रहे हैं। उसको अपने से छोड़ नहीं पाते। नयी दुनिया में आ कर के भी हम अपनी पुरानी दुनिया से अब भी पूरी तरह रिश्ता नहीं तोड़ पाते हैं। हालांकि रिश्ता टूट गया है। लेकिन दिमाग में अभी बैठा है। जैसे कि समझ लीजिये, कि एक आदमी शहर में रहने वाला है और वो जब गाँव में जाता है, तो जैसे शहर में मोटर चलाता है, वैसे ही गाँव में चलाने लगता है। फिर उसे बताया जाता कि, ‘बाबा, यहाँ का रास्ता खराब है। इस तरह से मोटर मत चलाओ, नहीं तो सत्यानाश हो जाये। तुमको तो गोल घुमाके चलाना पड़ेगा।’ तो भी वो भूल जाता है। उसकी आदत पड़ी हुई है दिमाग की। इसलिये दिमागी जो आदतें हैं वो आप पे काम करती हैं। इसलिये मैंने कल आपको बताया था, कि आप अगर पार भी हो गये तो भी आपको चाहिये, कि आप सहजयोग के लिये जरूर थोड़ा सा टाइम निकालें, जिससे आपकी निर्विचारिता स्थापित हो जायें । पहले तो विलंब का स्थापित करना होता है। अब जब ये आपका विलंब स्थापित होता है, यही वो जगह हैं जहाँ से परमात्मा का साम्राज्य शुरू होता है | जैसे की आप सोचते हैं कि शक्ति का मुँह, शक्ति के मुँह में जब तक आप दाना    नहीं देंगे, वो किसी भी तरह निकलने नहीं वाला, ऊपर में आप तो इधर उधर फैले जायेगा। इसी तरह निर्विचारिता समझ लीजिये परमात्मा के साम्राज्य का मुख है। उसमें आप डाल दीजिये तो सारा ही कार्य हो कर के, उसका जैसा प्रोसेसिंग हो कर के आप को तैय्यार काम मिलेगा। याने इतनी प्रचंड शक्ति है परमात्मा की। आपको कोई प्रश्न है, अभी एक साहब यहाँ पर आये हुए हैं। वो मॉरिशस में रहने वाले हैं। बहत बड़े साइंटिस्ट हैं। उन्होंने डॉक्टरेट की। बहुत सालों से मेहनत करते रहे । उनकी डॉक्टरेट किसी तरह से पास नहीं कर रहे | | थे। विषय उन्होंने बड़ा ही सुन्दर लिया हुआ था, कि ‘शराब का क्या असर होता है हमारे पर?’ उन्होंने कहा, ‘माँ, तो हार गया। वो तो मेरी ओर देखते भी नहीं।’ मैंने कहा, ‘अच्छा, तुम्हारा थीसीस तुम ले के आ जाओ।’ वो ले के आये। मैंने उसे पढ़ा वगैरा कुछ नहीं। मैंने कहा, ‘अभी इस वक्त टाइम नहीं है। बस, मैंने उसे उठा कर के उस शक्ति के मुँह में दे दिया। और आपको आश्चर्य होगा कि दूसरे दिन वो डॉक्टर हो गये। दूसरे ही दिन। एक शब्द भी इसमें से झूठा नहीं है। उस शक्ति के मुँह में डालने का एक प्रयास शुरू हो जाना चाहिये। करते करते वही फिर आदत हो जाती है। फिर हम कहते हैं, अच्छा, भगवान पे छोड़ दो । आप कितना भी कार्य कर लीजिये, लेकिन अगर वो परमात्मा पर छोड़ा नहीं है, तो उसका फल पता नहीं कहाँ से जा के कहाँ निकल आये। जब आप विचारों के चक्करों में घूमते हैं, तब आप कार्यान्वित रहते हैं । अब इसी वजह से मनुष्य ने जब अपनी स्वतंत्रता पा ली, तब उसने दो काम शुरू किये। शुरू शुरू में तो उसने ये कहना शुरू कर दिया कि, ये नहीं करो, वो नहीं करो। यहाँ नहीं जाओ, वहाँ नहीं जाओ। खास कर वेस्टर्न देशों में बहुत ज्यादा। डिसिप्लिन करो। अगर सबेरे जाना है तो ग्रे रंग का कुछ पहनो, रात को जाना है तो काले रंग का पहनो। शराब पीना है तो इस बोतल से पिओ, फलाने के लिये उसका एक अलग से ग्लास लाओ। उसके ऐसे काँटे- चम्मच रखो। इसके साथ में ऐसा कपड़ा पहनना चाहिये। उसका कोई अंत है। पागल जैसे लग गये। हर एक चीज़ का उन्होंने ऐसा तरीका बनाया, कि आदमी पगला जायें, कि खाना न खाना हुआ, एक आफ़त हो गयी। चीज़ है तो उसके लिये अलग से प्लॅटर लाओ, उसके लिये अलग लाओ। अपने देश में ऐसा………. (अस्पष्ट) बहुत है। याने परमात्मा की प्रार्थना करना। परमात्मा को अपने को समर्पित करना , ये छोड़ के उनके दुनियाभर के रिच्यूलिझम हमने निकाले हैं। और उसकी इतनी बेवकुफ़ियाँ हमारे देश में भी हमने की हैं, कि उसकी कोई हद नहीं। उसका उदाहरण एक बताऊँ, जैसे कि, संकष्टी होती है अपने यहाँ। जिस दिन गणेश जी का जन्म हुआ है। उस दिन उपवास करना। अब ये बताईये, कि आपके घर अगर बच्चा होगा तो भी क्या आप उपवास करेंगे? व्रत रखेंगे। सूतक रखेंगे। एक रिझर्निंग होना चाहिये। आदमी को सोचना चाहिये, क्या हम इस तरह से करेंगे? हमारे घर अगर बच्चा हुआ तो हम शोर करेंगे, उस दिन ढोल बजायेंगे, लोगों को पेढ़े खिलायेंगे । खूब मौज करेंगे, मेजवानी करेंगे। और जब श्रीगणेश जी पैदा हुए तो भी उठ कर के आप उपवास कर रहे है। ये इस तरह की अजीब अजीब चीज़ें, फिर ये कि मंदिरों में जाना। मंदिर में ब्राह्मण बैठे हुये हैं। बड़े चार सौ बीस हैं पक्के। मालूम है, इनका कोई चरित्र नहीं, कुछ नहीं। जा के उनके सामने , उनके पैर छूएँगे। आप के पैर के धूल के बराबर भी नहीं है और आप बैठे हैं मंदिर में उनके पैर छूने। टीका लगाना, सबेरे चार बजे उठ कर सबको परेशान करना। चीखना, चिल्लाना। धर्म के नाम पर हर तरह की परेशानी डालना। हर एक धर्म में। कौनसा धर्म ऐसा नहीं जिसमें तमाशे नहीं किये? जैन धर्म को तो भगवान बचाये रखें । जैन धर्म में जो जो तमाशे इन्होंने किये हैं, भगवान ही बचाये रखें। एक बड़ा भारी जैनी मुनी मेरे पास आये। मैंने कहा, ‘भाई, ये क्या कर रहे हैं तुम लोग?’ उसके चवर के हिलाने के पैसे दो और मुर्ति के पीछे में खड़े होने के पैसे दो । इसके पैसे दो, उसके पैसे दो। ये कोई तरीका है? कहते हैं, शादी होती है, बरात में दुल्हा आता है, तो उसके घोड़े के पैसे दो। उसकी गाड़ी के पैसे दो। ऐसे भगवान की सब चीज़ के आप पैसे देते बैठे हुए हो। इस तरह की अजीब अजीब चीजें हमारे धर्म के नाम पर बन गयी। ख्रिश्चन धर्म में तो और भी सत्यानाश! कुछ पूछिये नहीं । पहले आपको मालूम होगा, पोप साहब ने वो निकाले थे परवाने वगैरा, ये लो, वो लो, और परवाने करो । अभी भी वही चल रहा है, हर एक चीज़ में पैसा । जहाँ जाईये वहाँ पैसा लेना और इस तरह की चीज़े करना। फिर आप जानते हैं, नन्स बनाना। फिर उनके बाल कटवाना। फिर हर तरह से उनके शरीर को तकलीफ़ देना। ये किसने बताया। अपने यहाँ भी बहुत है। कोई संन्यासिनी हो गये। कोई संन्यासी हो गये। कोई एक पैर से खड़े हुए हैं, कोई सर के बल खड़े हुए हैं। ये कोई परमात्मा को खुश करने का तरीका है, आप ही बताईये! अगर आप का बेटा आपके सामने ऐसा करें तो आप तो मर जाईयेगा परेशानी से। ये क्या पगला गये हैं, क्या हुआ है क्या इनको? ये ऐसा क्यों कर रहे हैं? किसने बताया है आपको कि आप अपने को इतनी तकलीफ़ दीजिये, परेशानी में ड्रालिये रात-दिन । यहाँ मुसलमानों में कोड़े मारो, चीखो, चिल्लाओ। ये किसने बताया? इस तरह के तमाशे रिलिजन के नाम पे न जाने कितने आए! अंटसंट बातें हो गयी इसकी कोई हद नहीं। तो उसका रिअॅक्शन हो गया। जब बेवकूफ़ी हद तक पहुँच गयी तो उसका रिअॅक्शन हो गया। सायकोलॉजिस्ट आयें। वो अपने को बड़े अकलमंद समझते हैं। हमारे मराठी में कहते हैं, ‘उंटावरचे शहाणे’ । उन्होंने समझाना शुरू कर दिया कि, ‘साहब, ये तो ठीक नहीं है। आप कंडिशनिंग कर रहे हो, कंडिशनिंग कर रहे हो । अपना सब व्यक्तित्व ही खत्म करे दे रहे हो। ये नहीं करो, वो नहीं करो । तुम्हारा लिबरेशन कैसा होगा? तुम सब इनहिबिटिड हो। तुम्हारे अन्दर ये हालत खराब है, वो हालत खराब है।’ चलो साहब, अब ये सवारी खत्म हुयी और दूसरी सवारी शुरू हो गयी | 

अब दूसरी सवारी पे लग गये। एक तरफ़ से तो इन्होंने ऐसा विकृत मन तैय्यार कर लिया, धर्म के नाम पे, डिसिप्लिन के नाम पे। दुनिया भर की चीजें कर कर के लोगों में इतनी विकृति आ गयी। इतनी विकृति आ गयी, बिल्कुल, जिसको कहते हैं, अनैसर्गिक हैं। कृत्रिम, बिल्कुल आर्टिफिशिअल चीज़ें आ गयी। और दुसरी साइड़ में इन्होंने जो शुरू कर दिया कि, ‘साहब, कुछ नहीं। किसी की परवाह नहीं। भगवान नाम की कोई चीज़ नहीं है। कोई नहीं है। हमको कोई मतलब नहीं। बारह साल का बच्चा होगा तो माँ-बाप से कोई मतलब नहीं। माँ-बाप भी छोटा बच्चा पैदा हो गया, तो उसे दूसरे कमरे में ड़ाल देंगे। औरतें फ्री हो गयी। आदमी फ्री हो गये। फ्री क्या हो रहे हो, किस से हो रहे हो? आप एक शरीर के अंग-प्रत्यंग हैं। आप फ्री कैसे हो गये? मेरी उँगली छटक के कह दे कि मैं फ्री हो गयी। तो इसका क्या अर्थ निकलता है! इस उँगली का, ये मरी हुई  उँगली है? फ्री तो आप तब होंगे, जब उसको जानियेगा जिसके अन्दर आप बसे हुए हैं। उस शक्ति को जानियेगा, जिससे आप प्लावित हैं। पर हुआ क्या? कि पहले तो आपने अपने को धर्म के नाम पे सर्वनाश कर लिया। और अब दूसरी तरफ़ शुरू हुआ धर्म के नाम पे सर्वनाश करो । अंधा धर्म इतना मूर्खता से पाला गया। उसके बाद इस तरह की महामूर्खता दूसरी तरफ़ शुरू है, कि भगवान ही नहीं। इस से जो जो असल में थे लोग उनका ही नाम बदनाम हो गया। माने लोग कहते हैं, कि ईसामसीह भी नहीं थे और ईसामसीह, वो ठीक आदमी नहीं थे। माने क्या कोई हद होती है। आप उनके पाँव के धूल के बराबर भी नहीं। आप उनको कैसे जज कर सकते हैं ? लेकिन कौन बात करें? क्योंकि ये तो अहंकार की घोड़े पे चढ़ बैठे हैं। आपने देखा होगा, कि जब आदमी में अहंकार चढ़ जाता है तो उसकी खोपड़ी खराब हो जाती है। एक कहानी हैं। कुछ देहाती लोग एक मिनिस्टर साहब से मिलने गये थे | उनके पीए साहब मारे अपनी शान बघार रहे थे। तो बेचारे देहातियों को समझ में नहीं आया, तो उन्होंने कहा कि, ‘साहब, आप क्यों इतने बिगड़ रहे हैं?’ कहने लगे, ‘आपको पता नहीं मैं पीए हैूँ।’ कहने लगे, ‘हमको पहले बता देते आप कि आप पिअे हुए हैं। तो हम आप के सामने भी नहीं आते।’ तो जिसका इगो चढ़ जाता है वो पिए हुए आदमी जैसा है। उसको समझ ही में नहीं आता है, कि उसके पास सत्ता हो गयी तो उसको तो ऐसा लगता है कि वो घोड़े से भी जल्दी चल रहा है। घोड़ा तो पीछे रह गया ये ऊपर ही दौड़ते रहते हैं बिना घोड़े के। अजीब पागलपन के नमूने आप लोगों ने देखे होंगे। मुझे बताने की जरूरत नहीं। कोई आदमी फोन पे बात कर लें तो फौरन पता हो जाता है, कि कहाँ कि चिड़ियाँ है ये । बात के ढ़ंग में, बात की हर एक चीज़ में, उसके अन्दर अहंकार ऐसा जोर मारता है, कि उसको पता ही नहीं चलता। आप लोगों के अहंकार में अभी तक उतनी इगो में नहीं आयी है, चुस्ती , जितनी हमने वेस्ट के लोगों में देखी। इनका तो अहंकार उनपे ऐसा जमा बैठा है, कि वहाँ एक साधारण मजदूर भी इस तरह से बात करता है तो लगता है कि, ये कौन से पागलखाने से चला आ रहा है भाई ? वहाँ तो नम्रता नाम की चीज़ किसी को मालूम ही नहीं। सुबह से शाम तक गाली-गलौच के सिवाय बात ही नहीं करते। कम से कम अपने देश में सभ्यता है। कम से कम बोलने में तो लोग सभ्यता से बात करते हैं। इसलिये मैं मराठी, हिंदी में बोल रही हूँ, ये लोग सुनेंगे नहीं । हालांकि वो खुद ही कहते हैं। मुझसे कहते हैं, ‘माँ, हमारे अन्दर पहले से इगो आ गया है। हम तो कोई नेपोलियन तो नहीं पहले जनम में?’ इसलिये समझ लेना चाहिये, कि एक तरफ़ तो हम बहते बहते चले गये, एक साइड़ में, अंधश्रद्धा में और दसरी तरफ़ हम बैठे बैठे चले गये अहंकार में। दोनों भी चीजें असलियत से दूर हैं। हर एक चीज़ दूर का जो इसेन्स होता है, जो तत्त्व होता है बीचोबीच होता है। हमारी भी पीठ की रीढ़ की हड्डी बीचोबीच है । बीचोबीच रहना, मध्यगा, उसी में शक्ति होती है। हमारा हाथ भी टूट जायें तो फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन हमारे रीढ़ की हड्डी टूट जायें तो हम जी भी नहीं सकते । इसलिये जो इन्सान एक्स्ट्रिम पे चलते हैं, अब पैसे के लिये भागना शुरू हुआ तो पैसों के लिये भागे। अरे भाई , इसकी भी कोई हद होती है क्या ? आखिर तुम्हें क्या खरीदना है? क्या हैलिकॉप्टर खरीदना है? पैसों के पीछे भागेंगे तो इस हद तक कि देश भी बेच दो। कोई हर्ज नहीं। पैसा है न, पैसे की इज्जत होती है। और कोई पैसे की इज्जत नहीं होती। सब लोग जानते हैं कि एक कोई भी ऐसा आदमी हो, जो इस तरह का है, वो सिर्फ मुँह पे उसकी इज्जत करता है। जैसे ही उसकी पीठ फिरती हैं, मैंने देखा है, कि लाथ मार के फिर जा रहा है। ‘ये महा चोर है। परसो जेल से छूटा है।’ जो आदमी पैसे की इज्जत करता है, वो वहीं तक सीमित है। आपके अन्दर की कोई इज्जत नहीं करता। आपकी तो बाहर ही चीज़ की इज्जत होती है। आपके अन्दर क्या है? आपकी अपने घर प्रतिष्ठा है। आपका अपना घर में रिस्पेक्ट है, तो आप क्यों अपने को पैसे के पीछे बेच रहे हो ? आप मनुष्य हैं, मानव हैं, बहुत ऊँची चीज़ है। पैसा तो ठोकर पे चलता है। धूल है पैसा। पैसे से मिलने वाला है क्या वाला? और ये पैसा इसलिये आपको झेलता भी नहीं। आपके पास सौ रूपया आ जायें तो ठीक है कहना, पर कहीं दो सौ आ गये तो गये आप गु्ते पर। गुत्ते पर नहीं गये तो और कोई धंधे शुरू कर दिये आपने। ज्यादा पैसा आदमी को झेलता ही नहीं है । कभी मैंने सुना नहीं की, कोई आदमी को ज्यादा रुपया मिल गया तो जा कर फौरन वो ये सोचता है कि इससे चलो, मैं जा कर के कुछ बड़ा ही शुभ काम करूँ। या किसी गरीब के घर जा कर के, उसकी लड़की है या बच्चा है उसकी कोई देखभाल कूँ। बहुत कम। ऐसे भी जो लोग करते हैं, मतलब उनके पास लाखों रूपया होगा उसमें से एक पाई निकाल कर के वो देंगे और कहेंगे कि आप मेरा नाम छापियेगा जरूर। मेरे पास रोज आते हैं कि, ‘हम आपके आश्रम के लिये रुपया देंगे, पर आप हमारे बाप का नाम वहाँ लिख दीजियेगा।’ मैंने कहा, ‘मैं क्या लिखंगी आपके बाप का नाम। लोग पूछेंगे, कि इसकी स्पिरिच्यूअल व्हॅल्यू क्या थी उस आदमी की?’ आपकी स्पिरिच्यूअल व्हॅल्यू क्या है उसे देखना चाहिये। आपका आत्मिक तत्त्व कहाँ पर जागृत हुआ है, वो महत्त्वपूर्ण बात है। जब आप अपने आत्मिक तत्त्व पे आते हैं, तब आप इसी तरह से पागल जैसे पैसे के पीछे भागते हैं। और आप जानते हैं, कि पैसा कभी भी समाधान नहीं दे सकता है। ये तो इकोनॉमिक्स में लिखी हुई  बात है। ये तो इकोनॉमिक्स में लिखी हुई  बात है, कि पैसा आपको समाधान नही दे सकता। तो आपकी जो असलियत है, उसकी इज्जत करें। जो आपके अन्दर बसी हयीं परमात्मा की देन है, उसकी आप इज्जत करें। और तब आप किसी एक्स्ट्रिम पे नहीं जा सकते। सत्ता के पीछे में, आज कल आप देख रहे हैं अपने देश में, कि लोगों में जरा भी किसी भी प्रकार की स्टॅबिलिटी नज़र में नहीं आ रही । क्योंकि उनको अपने पे कोई नहीं रह विश्वास नहीं है। उनको ये भी नहीं समझ में आता है कि क्या करें? बौखला गये। उनका बेस ही कोई नहीं रह  गया। कोई उनके तत्त्व नहीं रह गये। क्योंकि वो तत्त्व से बहुत दूर चले गये हैं। और उस तत्त्व से दूर जाने के लिये उनको कोई भी घबराहट नहीं होती। क्योंकि उनका अहंकार उन में पूरा होता है। इसका फायदा बहुत लोग उठाते हैं। इस तरह से जो लोग डाँवाडौल होते हैं, उनका बहुत लोग फायदा उठाते हैं। अब आप कहेंगे कि, ‘माताजी, आज कल तो सभी लोग इस प्रकार के अपने देश में हो गये हैं। सब का जो है, वह अहंकार, इतना बढ़ गया है, कि लोग किसी भी तत्त्व पे विश्वास नहीं करते।’ नहीं करेंगे तो भुगतेंगे। जो मनुष्य अपने तत्त्व पे विश्वास नहीं करता, वो भुगतेगा | हर एक ने भोगा है। और जो नहीं करेंगें वो सब भोगेंगे। हिटलर अपने को समझता था कि वो दुनिया को नचा देगा। उस जमाने में, उसको ऐसा लगता था, कि वो जो करे सो कायदा। उन्होने तो भोगा ही, उनके सारे देश ने भोगा और आज तक भोग रहे हैं। इसलिये याद रखना चाहिये, कि पहले मैं कहूँ की तुम बेटा भोगो। बेहतर मैं ये कहूँ कि तुम अपना जो आनन्द है उसे भोगो। अपना जो तत्त्व है, ये भी शान की चीज़े हैं कि आदमी अपने तत्त्व पे खड़ा है। इस से बढ़ के और क्या शान हो सकती है। आपके पास चार मोटरें नहीं तो क्या फर्क पड़ने वाला है? उससे क्या आपका चला जाने वाला है? लेकिन कम से कम दुनिया में ये तो लोग कहते हैं कि तत्त्व के आदमी हैं। ये है दुनिया में तो ये तत्त्व के आदमी हैं। ऐसे हजार खटमल पैदा होते हैं और मर जाते हैं। आप अगर वाकई में कोई इन्सान हैं तो अपने तत्त्व में रहना चाहिये। आप अगर अपने तत्त्वों में रहते हैं, तो बहुत से लोगों का ये भी इसमें गड़बड़ हो जाता है, कि बड़े तत्त्वनिष्ठ हुए । तो सोचते हैं, कि सबको डंडा मारते फिरो । तत्त्वनिष्ठ माने उनको लगता है, कि चार बजे सबेरे उठना बड़ी तत्त्वनिष्ठता है। ये ऐसे तत्त्व नहीं हैं। तत्त्व बहुत ही अन्दर से है। जानने की चीज़ है। सब से बड़ा तत्त्व है प्रेम। सब से बड़ी ऊँची चीज़ है प्रेम। और जिसने इस तत्त्व को नहीं पहचाना वो बाकी के जो दिखाऊ तत्त्व हैं जिस से आप दुनिया भर की गर्दन नोचते फिरीये। आपको उपवास करना है उपवास करते रहिये। दुनिया भर को आप क्यों स्काऊट बनाये हुये हैं। सारे दुनिया भर को स्काऊट बनाने की क्या जरूरत है कि सबको आप गर्दन घोटे  हुए हैं। अपने यहाँ ऐसे भी बहुत सारे लोग निकल आये हैं, कि सब का जीवन मुश्किल कर देंगे। सहजयोग में आपको सहज रहना चाहिये। सहज माने जैसे आप है वैसे। कोई आपको असहज भावना नहीं करनी चाहिये। कोई आपको जरुरी नहीं, की आप लंगूर बन के घूमें। या कोई जरुरी नहीं, कि आप बड़े भारी अंग्रेज साहब बन के घूमिये। आप हिन्दुस्तानी हैं। हिन्दुस्तानी ढंग से आप रहिये। हिन्दुस्तानी इन्सान जैसे रहते हैं वैसे रहें। आप अपने …(अस्पष्ट).. जैसे रहिये? मुश्किल काम है? अब उन लोगों के यहाँ क्या हो गया? एक एक्स्ट्रिम पे चले गये। अब दुसरा एक्स्ट्रिम शुरू हो गया। वहाँ के लोगों ने कपड़े पहनना छोड़ दिये। जितना उन्होंने कपड़ों का माहात्म्य किया था, अब उसके फलस्वरूप ये हो गया, कि अब वो कहते हैं, कि चलो, फटे कपड़े पहनो| यहाँ से फटे कपड़े वहाँ पे एक्स्पोर्ट होते हैं, आपको पता ही होगा। इतने बड़े बड़े पैच लगे ह्ये हैं, वो बड़े अच्छे माने जाते हैं वहाँ । इसलिये … अति पे … जाने वाले लोगों ने अपने साथ बड़ी ज्यादती कर दी। अब बहुत लोगों को ये है कि काम है। मैं बहुत काम करता हूँ। काम करना अच्छा है, लेकिन परमात्मा को भी याद करना चाहिये। अपने आत्मा की तरफ भी ध्यान देना चाहिये। बैल के जैसे जूटने वाले लोग सहजयोग के लिये बेकार है। कोई जरूरत नहीं बैल के जैसे जूटने की। ठीक है, आप टाइम पे काम करिये। और थोड़ा टाइम अपने बीवी, बच्चे सबके साथ रहिये आप। उनके साथ भी समय बिताईये। आप पर उनकी भी जिम्मेदारी है। उनका जीवन बर्बाद कर के बड़ा भारी समयाचार लगाने की कोई जरूरत नहीं है आपको। अपने घर के लोग, अपने अड़ोस पड़ोस के लोग सब से आप प्रेम करें। आपको प्रेम के लिये टाइम नहीं है और काम करने के लिये आपके पास टाइम है। और इस काम का फायदा क्या है? क्या फायदा है? हमने बड़े बड़े देख लिये तीरंदाज इसमें, जिन्होंने बड़ी बड़ी पोजिशन ऑक्यूपाई करी। जब वो रिटायर हुये तो …. रसातल पहुँच जाते हैं। कोई पूछता भी नहीं की आप जा कर के कहाँ बैठे हुए हैं। और जिन्होंने प्रेम की गाथा गायी, उनको आज तक लोग याद करते रह गये। ऐसे अनेक आप उदाहरण जानते हैं, जितने भी साधु-संत हो गये, चाहे जैसे  भी गरिबी में रहे हो, लोग मथ्था टिकाने उनके दरबार पहुँचते हैं। और जो अपने को बड़े बड़े रईस समझ कर के, और बड़े बड़े अपने शहेनशाह समझ कर के दुनिया में मार जिन्होंने आफ़त मचा दी थी, आज वो कौन से खेत में, और कहाँ धूल में पड़े हुए हैं, सड़ रहे हैं? किसी को पता भी नहीं कि कौन कहाँ चले गये हैं? कम से कम किसी को पता भी हुआ तो उधर से जायेगा नहीं । ‘बाबा रे बाबा, वो राक्षस वहाँ सो रहा है। अपन इधर ही से चलो।’ लेकिन जिन्होंने प्रेम किया संसार पे, जिन्होंने प्रेम दिया, ऐसे लोगों की एक एक चीज़ में, उनके एक एक वाक्य में, इतना माधुर्य है, कि अभी तक जहाँ भी कहीं भी मिलता है लोग उसे पकड़ लेते हैं। आप ही लोग। जब आप जानते हैं कि हृदय से आप कुछ ऐसी ही चीज़ों की इज्जत करते हैं। आप ऐसे ही इन्सान की हृदय से इज्जत करते हैं। फिर आप अपनी भी इज्जत करिये। अपना भी स्थान बनाना होगा। और जब ये स्थान बनता है, तभी आप मध्य में आ जाते हैं। ये सब मैंने इसलिये बताया क्योंकि हमारे यहाँ एक्स्ट्रिम पे जाने से कितने कितने उपद्रव हो गये हैं । उसके बारे में आपको पता ही होगा । अब इसमें अनेक प्रकार होते हैं, जैसे कि आप कलेक्टिव सबकॉन्शस में चले जाये। बहुत ज्यादा भगवान की पूजा कर रहे हैं। रात-दिन भगवान, भगवान। आपका कोई अधिकार नहीं है। सुबह से शाम तक आप माला जपते बैठते हैं। अब आप से मैने कल ही बताया था, कि भाई, माला जपना सब का अधिकार नहीं। न करना चाहिये। भगवान को याद करने के लिये उनको हृदय में स्थित कर के और उनको बहुत ही आग्रह बुलाना पड़ता है। तब उनसे कोई संबंध बनता है। और आप लोग इस प्रकार उनका नाम जपते रहेंगे, तो उससे क्या होगा ? उससे सिर्फ एक बात होने वाली है, और बात वो हो जाती है, कि भगवान वगैरा तो कोई नहीं आते हैं, पर कोई राम नाम का समझ लो कोई भूत हो, आपकी खोपड़ी में आ जायेगा। बहुत से लोगों ने मुझे बताया, ‘माताजी, मैं बैठा था। भगवान की पूजा कर रहा था। मेरे हाथ से हार उठा और भगवान के गले में पड़ गया।’ मैंने कहा, ‘भगवान को और कोई काम नहीं?’ फिर आगे बढते बढते ऐसे गुरुजी लोग निकल गये। कहने लगे, ‘उनके पास मैं गया था । उन्होंने बता दिया , मेरे पिताजी ने धन कहाँ गड़ा के रखा है।’ मैंने कहा, ये भगवान तुम्हारे ये सब लिखते रहते हैं क्या? और तुम्हारे बाप ने तुम्हारे लिये कहाँ धन गड़ा के रखा है? चार जनों की और गर्दनें काँटो। फिर कहने लगे, ‘नहीं, एक सवाल उन्होंने बताया। मैंने कहा, ‘क्या?’ उन्होंने कहा, ‘घोड़े का नंबर बताया और वही घोड़ा आया।’ ‘और ही भगवान की’ मैंने कहा, ‘बड़ी इज्जत कर ली।’ फिर कहने लगे, ‘सट्टे का नंबर भी बताते हैं और मटके का नंबर भी बताते हैं।’ इस तरह से हम कितने गिरते गिरते , कहाँ जा के गिर जाते हैं। भगवान को सोचते हैं, हम अपने घोड़े का नंबर पूछने लग जाते हैं। भगवान के काम में ऐसे हजारों गुनाह करते हैं और उनके यहाँ बड़ी बड़ी मोटरे खड़ी रहती है। आपने देखा होगा। उसी में, फिर अपने महाराष्ट्र में खास कर के, औरतों के बदन में देवी का संचार होता है, कहते हैं। इन भूतनियों के बदन में आने के लिये देवियों को और कुछ धंधा है या नहीं। वैसे तो वो बर्तने माँजती रहती हैं दुनिया भर के और उसके अन्दर देवी आ गयी। गये उससे पैर छूने के लिये| ये सारी बेवकूफ़ियाँ हमारी लेफ्ट साइड़ की मूर्खता की वजह से और अंधता की वजह से करते हैं। सुबह से शाम तक। अगर कहा, ‘भाई, जाओ, तुमको मंदिर जाना है तो जाओ| उसकी जो मुर्ति है उसके सामने मथ्था टिकाना और वापस चले आना ।’ वो मानेंगे नहीं इस बात को। वहाँ से प्रसाद ले के आयेंगे। पता नहीं किस गंदे आदमी ने किस तरह से बनाया। उसका हृदय कैसा है? वो खा के कहेंगे, ‘अहाहा, प्रसाद खाया।’ और उसके बाद सीधे डॉक्टर के पास। और राइट साइड़ के लोग जा निकलते हैं, उनको तो भगवान ही बचाये रखें। अहंकार ऐसी चीज़ हैं, वो आदमी की समझ में ही नहीं आता । वो बेवकुफ़ियाँ करते जायेगा, मूर्खता करते जायेगा। लेकिन उसकी समझ में नहीं आयेगा कि मैं मूर्ख हूँ। तब दुनिया उस पे थूकेगी और हसेगी। (अस्पष्ट) का नाम की जगह है। वहाँ के राजा साहब इतने बेवकूफ़ हैं। वो हैं निग्रो और उन्होंने मोती के जूते बनाये। अजीब अजीब तरह की चीज़ें वो करते रहते हैं। अमिन साहब एक है। अकलमंद बहुत बड़े। लेकिन वो अपने इतने अकलमंद समझते हैं कि उनको कौन समझायें? घोड़े पे सवार हैं न! अहंकारी आदमी तो बहुत ही मुश्किल से ठीक होता है। क्योंकि उसका अहंकार, वो सोचता है कि ‘ यही मैं हूँ।’ और इस अहंकार को भी पालने वाले भी पैदा हो गये हैं। वो आपको कुछ न कुछ सीखा देंगे कि, ‘हाँ भैय्या, तुम आओ मेरे पास में, सब तुम्हारे बाप के नाम पे बना दूँगा।’ आपका मैं नाम दे दूँगा, भोगानंद, ढोंगानंद, खराबानंद। अंग्रेज लोग तो बेचारे कुछ जानते नहीं, उनको जो भी नाम दे दें । अभी एक साहब मुझ से बता रहे थे कि उन्होंने ६०० पौंड दिया एक महाशय जी को, कि उन्होंने उनको मंत्र दिया। मंत्र क्या दिया , ‘एँगा’। ६०० सौ पौंड। और दूसरे को दिया ‘टिंगा’ । अब एक . | हिन्दुस्तानी समझता है कि बेचारे, इनको कुछ मालूम नहीं, बुद्द है। उनको ‘टिंगा’ मंत्र दे दिया। आपको कपड़े पहना दिये। आपके कपड़े उतार दिये, कहीं कुछ,कहीं कुछ। ये माला पहन लो, ये करो, वो करो। हो गये बेचारे बुद्द। अब | अहंकार के चक्कर में उनको ये नहीं समझ में आता है, कि भाई, माला पहनने से परमात्मा मिलेगा ? कबीर ने तो कहा है, ‘कर का मन का छान लो, मन का मन का….।’ ये सब क्या गधे थे, नानक जी वरगैरा? ये सब झूठ बोल रहे हैं? तुकाराम क्या बिल्कुल गलत थे? ज्ञानेश्वर बिल्कुल गलत थे? फिर ये कहाँ से आ गये समझाने के लिये ? मराठी में कहते हैं, उपटसुंभ! इनकी बातें आप लोग सुनने लग जाते हैं, क्योंकि आप राइट साइड़ पे क्रॉस कर गये। फिर कोई आ के आप से बातें करें। आप का दिमाग खराब करें। ऐसे वर्णन करें आप के बिल्कुल, आप के ऐसे पूल बाँधें तारीफ़ के। इतना आप से प्रेम कर दें। आप बिल्कुल …..जैसे जमीन पे गिर जाईयेगा आपको पता भी नहीं चलेगा। गर्दन कट जायेगी। ऐसी बेवकूफ़ी में फसने  वाले लोग परमात्मा को क्या पायेंगे ? यहाँ उनकी बात है, आपको परमात्मा को पाना है। यहाँ आपको परमात्मा को बुलवाना है। उनका आवाहन करना है। अपने हृदय में बिठाना है। उनसे कहना है कि, ‘प्रभु, आओ, हमारे जो भी दोष हो उसे क्षमा कर दो और | हमारे हृदय में आप जागृत हो जाओ|’ यहाँ दूसरी बात है। यहाँ कोई दुकान नहीं है कि आप देते हो कि नहीं देते हो । कोई आपने रुपया पैसा दिया जो हम देंगे। ऐसे आ कर लोग डंडे ले कर खड़े हो जाते हैं, कि ‘आप माँ हो कर हमें क्यों नहीं देते ?’ ‘देना है तो देंगे, नहीं तो नहीं देंगे । आप हमें ललकार नहीं सकते।’ इसकी वजह ये नहीं कि देना नहीं चाहते। लेकिन जब नहीं बनता है तो नहीं बनता है और बनता है तो बनता है। इसको क्या किया जाय ! अगर एकाध बीज अपने आप ऊपर आता है तो आता है, नहीं आता है तो नहीं आता है। ये बात आप जानते हैं, कि उसके ऊपर कोई जबरदस्ती की जाती है, कि उसके अन्दर से अंकुर खींचा सकते हैं। क्या आपकी कुण्डलिनी को कोई खींच लेगा? जो कुछ भी आपका किया कराया है, जो कुछ भी आपने तबियत सम्भाली है, उसके अनुसार आपकी कुण्डलिनी जागृत होती है। इस प्रकार आपके अन्दर जो दो शक्तियाँ हैं, इड़ा और पिंगला में जो बहती हैं। जिसका का बहने का नाम हैं, कि आप कहें महाकाली की शक्ति। इसका इंग्लिश में कोई नाम नहीं। ये महाकाली की शक्ति आपके लेफ्ट साइड़ में दौड़ती है। इसे होली घोस्ट अंग्रेजी में कहते हैं। इसी एक महाकाली की शक्ति से ही दूसरी शक्तियाँ निकलती हैं। यही परम शक्ति हैं। इस में से दूसरी शक्तियाँ निकलती हैं, जिसे की हम लोग महासरस्वती की शक्ति कहते हैं। जिससे हम सोचते हैं, विचारते हैं और आगे की बात करते हैं। इन दो शक्तियों को गलत तरीके से इस्तमाल करने की वजह से ही हमारे अन्दर अहंकार और प्रतिअहंकार के घनीभूत, सर में ये बबल्स हो जाते हैं। या कहना चाहिये की गुब्बारे जैसे दो घनीभूत संस्थायें तैय्यार हो जाती है। और इसके चक्कर की वजह से ही कुण्डलिनी नहीं उठती क्योंकि जब इस तरह से एकदम पूरी तरह से आपका सर ढ़क जायें या एक ने ज्यादा ढकेल दिया हो, या दूसरे ने ज्यादा ढकेल दिया हो, तो बीच की जगह नहीं बन सकती। कुण्डलिनी जगह पे बैठी रहती है। पर सर्वसाधारण कुण्डलिनी उठ जाती है, आपने कल देखा है। इसलिये मैं आपसे कल कह रही थी कि क्षमा करो। अहंकार का इलाज है क्षमा करना। अगर आपको गुस्सा आयें, जैसे ही गुस्सा आयें आप एक शब्द कहें कि, क्षमा। कोई कहे, कि बहुत हॉट टेम्पर्ड है। बहुत ही ज्यादा, कहते हैं कि, नाकाच्या शेंड्याला राग असतो ( मराठी) । नाक के ऊपर में यहाँ आपके गुस्सा बैठा रहता है। ऐसे आदमी को ये करना चाहिये, कि जैसे आपको गुस्सा आये आप उसे कहते हैं, ठहरिये, ठहरिये, ठहरिये। तीन मर्तबा उसे कहिये। या आप उसे कहिये, क्या कहा आपने, क्या कहा आपने , क्या कहा आपने? और फिर उसके बाद आप कहिये, क्षमा। कोशिश कर के देखिये , गुस्सा आपका कम हो जायेगा। लेकिन जबरदस्ती गुस्से से झूँजने की जरूरत नहीं है| गुस्से से झँजने की जरूरत नहीं है । जिस आदमी के अन्दर गुस्सा दबा हो, चाहे निकला हुआ है, जिसे गुस्सा करने की आदत है, इसका मतलब है उसका अहंकार दुषित है। उसका अहंकार परेशान है। इस लिये आदमी को पहले अपने को क्षमा करना चाहिये और फिर दूसरों को क्षमा करना चाहिये। इसलिये क्षमा एक बहुत बड़ा ऐसा साधन भगवान ने दिया हुआ है, जिसके कारण हम अपने अहंकार को पा जाते हैं। अब हमारे मन ! मन को जीतने का कौनसा तरीका है? एक तो क्षमा से हम अपने अहंकार को जीत सकते हैं और अपने मन को जितने का तरीका ये है, कि जिस चीज़ को बहुत ज्यादा देखने का मन करता है, जिस चीज़ को बहुत ज्यादा पाने का मन करता है, उधर अपने मन को कहना चाहिये, कि क्या बेवकूफ़ी लगा के रखी है। तो मन का खिंचाव खत्म हो जायेगा। मन की आदतें टूट जायेगी । आदतें तोड़ने के लिये सब से अच्छा तरीका यही है, कि जिस चीज़ का बहुत मन चाहता है, उसे कहना, अच्छा, आप बैठे रहिये । बहुत आपको देख लिये हमने। लेकिन ऐसा नहीं होता है। अधिकतर लोग कहेंगे कि, ‘भाई, मैं तो असली घी खाता हूँ और तो कुछ नहीं खाता। मैं तो भाई, ऐसा है मेरा, मुझे एकदम बढ़िया खाने को चाहिये।’ हमारे यहाँ खाने पे ज्यादा मन होता है। अपने देश में खाने-पीने की बीमारी है। सुबह से शाम यही बीमारी है कि आप क्या खाते हैं? क्या भगवान आपको खाने पर कोई पारितोषिक देने वाला है? भाई, आप ये खाना खाते हैं, वो खाना खाते हैं, आपको इस खाने का शौक है । आज मुझे पुरणपोली चाहिये। इसमें अपनी शान बधारना कितनी बेवकूफ़ी की बात है। ‘मुझे ये अच्छा लगता है, मुझे वो अच्छा लगता है।’ इस तरह से जबान से कहना भी क्या शोभनीय है? और वो भी ऐसी चीज़े आप कहियेगा, कि जिससे सोचते हैं कि मैं रईस हो गया| देख के मुझे आश्चर्य होता है, कि ये भी कोई बात कहने की है बेटे। ये भी कोई बात अपने मुँह से कहने की है। ‘मुझे इस का शौक है। मुझे कपड़े का शौक है। मुझे फलाने का शौक है। मुझे ढिकाने  का शौक है।’ परमात्मा की नज़र में ये सब चीजें क्या हुई  आप ही बताईये। आप परमात्मा की जगह खड़े हो कर सुनिये कि अगर कोई आदमी आपको बताये कि ‘मुझे इसका शौक है। मुझे उसका शौक है । वो अच्छी है।’ इस तरह की फलाना है। हमारी अम्मा बहुत अच्छा खाना खिलाती है। वो ढिकानी हैं। बहुत बेवकूफ़ी की बातों से ले कर बड़ी बातों तक, ‘मुझे मोटर का शौक है। मुझे सत्ता का शौक है। मैं प्राइम मिनिस्टर बनूंगा। इसका मुझे शौक है। उसका शौक है।’ आपको दुनिया भर के शौक हैं, तो आप अपने घर में बैठिये। परमात्मा के साम्राज्य में ऐसे शौकिनों की कोई जगह नहीं। जरूरत से ज्यादा इस तरह की शौकिनियत करना कोई मनुष्य को शोभा नहीं देता। ये मनुष्य ही करता है, जानवर नहीं करता बेचारा। वो तो कहीं भी सो जाता है। कहीं भी उठ जाता है। मेरे ख्याल से जो साधु-संत होते हैं, वो भी उसी हालत में पहुँच जाते हैं। कहीं भी कहो सोने को तो सो जायेगा। सारा आराम अन्दर ही है तो बाहर की ये सब चीज़ों क्या जरूरत है? पर जब तक वो दशा नहीं आती तब तक अपने साथ बहुत ज्यादा जबरदस्ती करने की जरूरत नहीं। क्योंकि मैं एक बात कहँगी तो आप दुसरी बात करियेगा। अगर मैं कहँगी कि, ‘बेटे आराम मत करो ज्यादा।’ तो आप कहेंगे कि, ‘अच्छा, आज से, माँ ने कहा है हम जमीन पर सोयेंगे।’ रास्ते पर जा के सो जायेंगे। मैंने कहा, ‘भाई, रास्ते पर सोना अच्छा नहीं है।’ तो महलों में जा के सोयेंगे। माने बीच में रहो, ये बात मैं कह रही हूँ। किसी भी बीच में न रहने से मनुष्य में एक तरह की बेवकूफ़ी आ जाती है। और इतना प्रीव्हिलन्स और इतना उच्छ्ृंखल हो जाता है, कि उसको समझ ही नहीं आता है, कि किस उसमें कोई चीज़ में मजा है? हर चीज़ को वो उथली नज़र से देखते रहता है।  सारा जीवन उसका बड़ा उथला, गहनता नहीं आती। और जब तक गहनता नहीं आयेगी तब तक आपके अन्दर आनन्द कितना भी भरो कुछ आनन्द आपको नहीं आता। ये दोनों एक्स्ट्रिम की बातें हैं मैंने आपको बताया, कि जब आदमी अहंकार में चढ़ता है, तो अहंकार की भी भूत चढ़ते हैं। ऐसे कैसे अहंकारी लोग होते हैं दुनिया में, कि जो मरते हैं तो भी उनका अहंकार नहीं जाता। इनको लगता है कि साहब, मैंने कुछ भूत काम ही नहीं किया । ऐसे लोग भी आपकी खोपड़ी में घुस सकते हैं। उनके भी आपके अन्दर आ सकते हैं। अगर आप ऐसी ऐसी बातें करेंगे तो लोग कहेंगे कि, ये तो ऐसा नहीं था । इनको हो क्या गया? तो नॉर्मल रहना चाहिये आदमी को। बीचोबीच रहना चाहिये। जो आदमी बीचोबीच रहता है वो दोनों ही शक्तियों से पूर्णतया प्लावित होता हैं।  जो आदमी बहुत ज्यादा काम करता है, बहुत ज्यादा अहंकारी है, तो हार्ट अटॅक आयेगा। अगर हार्ट अटॅक नहीं आयेगा, तो डायबेटिस हो जायेगा । डायबेटिस नहीं होगा तो किडनी की बीमारी हो जायेगी, लिवर की बीमारी हो जायेगी और उसको और बीमारियाँ हो सकती हैं। क्योंकि हमारे अन्दर स्वाधिष्ठान चक्र जो है, वो ये कार्य करते रहते हैं। उनका एक सबसे बड़ा कार्य ये है, कि हमारे लिये जो बुद्धि है, उसमें जो काम हो रहा है, उसके लिये मेद है। फॅट सेल्स को पहुँचायें। उसका सप्लाय करें। फॅट सेल्स का सप्लाय कम नहीं करना चाहिये। अब एक विचार ये तो, एक काम अगर आप देखियेगा, तुम सोचो, सोचो, सोचो तो बाकि के जो काम उसके हैं, जो कि पैंक्रियाज हैं, लिवर हैं, किडनीज हैं, स्प्लीन वगैहरा है, उसको नहीं देख पाते। फिर आपको डायबेटिस की बीमारी हो जाती है। सहजयोग में हम लोग डायबेटिस सौ फीसदी ठीक करते हैं। अगर आप पार हो जायें और अगर हमारी बात सुने तो। सौ फीसदी आपका डायबेटिस, किडनी सब ठीक हो सकती हैं। आपकी अगर किडनी एक बार आपने मशीन में डाल दीं, तो हम नहीं ठीक कर सकते। और इसके लिये हमें क्षमा कर दें। मशीन में चीज़ जाने से वो मर ही जाती है। ये हम नहीं ठीक कर सकते, उसमें नाराज होने की क्या बात है? कोशिश करेंगे, लेकिन बेकार में परेशान करने की कौनसी बात है? अब हमारे अन्दर ये जो दूसरा चक्र है, स्वाधिष्ठान चक्र, जिसके बारे में मैंने बताया, इस चक्र के ऊपर जो नाभि चक्र है, इसमें लक्ष्मी तत्त्व का वास है। इसमें लक्ष्मी जी का वास है। और लक्ष्मी आप जानते हैं वो पैसा नहीं होती। लक्ष्मी जी का स्वरूप ऐसा हैं, मैंने अनेक बार बताया है। आप अगर इसके बारे में पढ़े तो आप जानेंगे कि लक्ष्मी जी और पैसे में बहुत ही अन्तर है। सब से बड़ी चीज़ लक्ष्मीपति जो होता है वो मन से बहुत संतुष्ट होता है। जो दूसरों को देता है और जिसके आश्रय में अनेक लोग रहते हैं। जो कमल के जैसे अपने ऊपर वस्त्र परिधान किये हुए है। और जो अत्यंत हृदय से भी कमल के जैसा बहुत ही ज्यादा वॉर्म, बहुत ही ज्यादा सुगंधित होता है। अब ये लक्ष्मी तत्त्व जब हमारे अन्दर जागृत हो जाता है, जब कुण्डलिनी लक्ष्मी तत्त्व को छोड़ देती है, तब हमारे जो कुछ भी सांपत्तिक प्रश्न हैं वो ऐसे छूट जाते हैं। अब सांपत्तिक प्रश्न का मतलब ये नहीं कि आप अगर होना चाहें, समझ लीजिये, आप बिला, टाटा होना चाहें, तो वो तो कभी न होना आप। उनको जा के पूछे उनका क्या हाल है। लेकिन आप की जो सांपत्तिक स्थिति है, वो अच्छी हो जाती है। उसका मुख्य कारण ये हैं कि लक्ष्मी तत्त्व जागृत होते ही आपकी सारी गन्दी आदतें जाती हैं। शराब छूट जायेगी अपने आप। आपका तम्बाकू छूट जायेगा। आपका जो भी पान है ओर ऐसे जितने भी चीजें हैँ वो भी सब छूट …जाएँगी।  , जो भी ऐसी ऐसी चीज़ें हैं जिसके लिये पैसा बेकार जाता है, वो सब छूट जायेगा। क्योंकि आप मजे में बैठे हुए  हो। दूसरा है, क्योंकि लक्ष्मी तत्त्व की वजह से आप बराबर समझ पायेंगे कि कौनसी चीज़ में असलियत है और कौन सी चीज़ में नकलियत है | एक साहब थे उनकी सांपत्तिक बड़ी बुरी हालत थी। वो मेरे पास आयें। उन्होंने पूछा, ‘क्या काम करूँ? ‘कौनसा भी काम करो, तुम जागृत हो गये। ‘तुम लकड़ी का काम करो ।’ कहने लगे, ‘मैंने तो कभी लकड़ी देखी ही नहीं ।’ मैंने कहा, ‘तुम शुरू तो करो।’ धीरे धीरे उनको वाइब्रेशन्स से पता चल गया कि इस काम में कैसी प्रगति करनी चाहिये? कैसे चलना चाहिये? और उन्होंने पैसा माने काफ़ी। जितना एक समाधानी कमाया। बहुत बहुत आदमी को मिलना चाहिये। इस तरह से सब का ही लक्ष्मी तत्त्व ठीक हो जाता है।. हमारे लंडन में बहुत से ऐसे लोग हैं, जिनको लक्ष्मी तत्त्व से अनेक फायदे हो गये। जिनके पास मकान नहीं थे, उनको अचानक मकान मिल गये। जिनके पास खाने को नहीं था, उनको नौकरी मिल गयी। कुछ न कुछ कुछ व्यवस्था हो गयी। अनेक तरह की मदद हो गयी। और इस तरह से लोगों का लक्ष्मी तत्त्व फायदे में आ गया। अब जब लक्ष्मी तत्त्व आपका जागृत हो जाता है, कुण्डलिनी जागृति के बाद, तब आप किसी भी चीज़ पर हाथ रखते हैं, समझ लीजिये एक पेड़ हैं और वो मर रहा है, उस पे अगर हाथ रख दिया, तो उसके अन्दर भी लक्ष्मी तत्त्व जागृत हो जायेगा। उस पेड़ को कीमत आ जायें। माने उस पेड़ में ऐसे फल लगेंगे, जो बड़े कीमती होगे। इतना ही नहीं, आप सोचिये कि, एक चीज़ है, एक स्टोन है मेरे पास । एक हमारी ऑस्ट्रेलियन शिष्या है। वो मुझे कहने लगी कि, ‘माँ, ये ऑस्ट्रेलियन ओपल है।’ एकदम सफ़ेद रंग का था । भूरे भूरे रंग का। मैंने कहा, ‘बेटे, मैं तो कुछ लेती नहीं।’ कहने लगी, ‘माँ, हमारी तरफ़ से, ऑस्ट्रेलिया की तरफ़ से ले ही लो।’ तो मैंने फिर सोना दे के उसमें इसको गठवा लिया। जब से पहनने लगी तो उसके रंग ही बदल गये। पच्चीसो रंग इसमें दिखायी देते हैं। उसको भी आनन्द आ गया कि इतने रंग इसमें कहाँ से आ गये ? इसमें तो सिर्फ सफ़ेद ही रंग था । अगर ऐसा आदमी मोती पहने तो मोती की किमत बदल जाये। जिस घर में रहता है उसकी कीमत बदल जाये। क्योंकि सारा वातावरण ही बदलते जाता है। लक्ष्मी तत्त्व जब आ जाता है, समझ लीजिये एक मकान है, वो पच्चीस रूपये में बिकता है, अगर उसमें कोई साधु-संत रहेगा तो वही मकान पच्चीस सौ में बिकेगा । आपको आश्चर्य होगा। उसमें एक आकर्षण है। एक खिंचाव, एक विशेषता  है। क्योंकि ये तत्त्व है ये इतना परिणामकारी है, कि उसके बारे में हम जानते ही नहीं। उसका बड़ा कॉँक्रीट उदाहरण मैं आपको दूं। शास्त्रीजी की जब डेथ हुई , तो उनकी जो डेथ चीजें थीं , जिसको हम लोग कहते हैं अस्थियाँ, वो बड़े बड़े कलश में ले कर के लोग चले। वो कलश ट्रेन में रखे थे। जहाँ भी जाते थे, रास्ते भर माने सारा रास्ता, बनारस तक, ऐसी कोई जगह नहीं थीं जहाँ आदमी खड़े नहीं हुये थे। रात में भी लालटेन ले कर के सब लोग खड़े थे। यहाँ से वहाँ तक सब जगह, मिलों तक लोग खड़े थे। बस उनको कलश ही तो दिखायी दे रहा था। शास्त्रीजी तो नहीं दिखायी दे रहे थे। उसको नमस्कार करते थे। उसके बाद जब बनारस में गये और गंगाजी में वो अस्थियाँ समर्पित हो गयी। उसके बाद किसी ने पूछा भी नहीं, वो कलश कहाँ पर है? उसकी तरफ़ देखने वाला भी नहीं । किसी ने सोचा, वो कलश कहाँ है? वो चाँदी के कलश थे। कहीं खो जाये। तो कोई जानता नहीं, कहाँ पर हैं कलश? वो कहीं गिरा हुआ था। एक जन उठा के लाये, कहने लगे, यहाँ पर पड़ा था कलश। जब उसके अन्दर का तत्त्व खत्म हो गया तो उसमें क्या अर्थ रह गया। इसलिये अपने तत्त्व पे रहिये। और ये चक्र जो हमारे अन्दर हैं, ये तत्त्व जागृत रखता है, पहले तो आपके अन्दर आपके नाभि पर ये चक्र है। और इस नाभि चक्र पे आपकी माँ का वरदान है। आप अपने माँ से कनेक्टेड हैं। जिस इन्सान की माँ बहुत धार्मिक और अच्छी औरत होती हैं, जिसमें कोई भी अतिशयता नहीं होती है, ये बड़ा भारी वरदान उस आदमी को है। ऐसे आदमी का नाभि चक्र ज्यादातर संतुलित रहता है, जिस माँ ने अपने बच्चे को प्यार दिया, दुलार दिया। और अगर उसको हमेशा…दुखी .. रखा , या तकलीफ़ दीं तो फिर बहुत परेशानी हो जाती हैं। अगर उस बच्चे को खूब सारा प्यार दिया, और हमेशा उसको संतुष्ट रखा है, तो ऐसा लक्ष्मी चक्र बहुत जल्दी जागृत हो जाता है। और कभी कभी कोई माँ है, बहुत ही ज्यादा धार्मिक हैं, बहुत ही ज्यादा जिद्दी है और दुनिया भर की चीज़ें कुराफात  करती हैं । अपने बच्चों को नहीं देखती, उनका श्री चक्र खराब हो सकता है। वो चाहे पैसे वाला हो, लेकिन लक्ष्मीपति नहीं होगा। माने ऐसा आदमी समाधानी नहीं होता। अब साइकोलॉजिस्ट भी इसको मानते हैं। जिस बच्चे का बचपन अच्छे से नहीं बितता है, वो आदमी ऐसा कुछ अॅबनॉर्मल होता है। उसके आगे का जो चक्र है, उसके आसपास में जो आप वॉइड देख रहे हैं, ये बहुत जरूरी चीज़़ है। ये हमारे पेट में सारा जो वॉइड है, जिसको की यहाँ पर दिखाया गया है इस तरह से, इसके अन्दर दत्तात्रेय जी का स्थान है। गुरु का स्थान है ये। हमारे पेट के अन्दर गुरु का स्थान है। जैसे नाभि चक्र से हम खोजते हैं, पैसा खोजते हैं। या चाहे, पहले तो हम खोजते हैं पेट भरने के लिये, फिर अपनी तृप्ति खोजते हैं, फिर उसके बाद में, उससे नहीं भरा तो फिर उसके बाद में हम सत्ता खोजते हैं, पैसा खोजते हैं, ये खोजते हैं, वो खोजते हैं और फिर उसके बाद में जो गुरु तत्त्व होता है, उसको खोजते हैं। हम खोजते हैं कि हमें कोई ऐसा आदमी मिले, कि जो हमें इस भवसागर से पार कराये। इसके खोज में हम लग जाते हैं। ये दत्तात्रेय जी का स्थान है। आपने तो सुना ही है, आदिनाथ, मच्छिंद्रनाथ। आदिनाथ, जिन्हें जैनी लोग भी मानते हैं। उन आदिनाथ से ले कर सब दत्तात्रेय के अवतरण हैं। और ये अवतरण मुख्यत: दस अवतरण हम मानते हैं। पर ऐसे तो अनेक हुए हैं। इन दस अवतरणों में मोहम्मद साहब भी हैं। दत्तात्रेय ही है साक्षात् मोहम्मद साहब। याने हम लोग ऐसे हैं साईंनाथ को भी मानते हैं। हाँ, वो भी बिल्कुल दत्तात्रेय ही थे। शिर्डी के साईंनाथ दत्तात्रेय ही थे। लेकिन हम अगर कहें कि मोहम्मद साहब ही दत्तात्रेय ही थे, तो नहीं मानेंगे । आखिर साईनाथ भी तो मुसलमान थे। फिर आप उनको क्यों मानते हैं? उनको मानेंगे पर मोहम्मद साहब को नहीं मानेंगे। मोहम्मद साहब भी वही थे। नानक भी वही थे। जनक भी वही थे। ये सब हमारे वॉइड के अन्दर होते हैं। जब किसी आदमी को इसमें दुविधा लगती है, जब सर्वधर्म में वो एकता नहीं देखता है, तब उसे पेट की बीमारियाँ हो जाती है । इसलिये आपको समझ लेना चाहिये, कि दत्तात्रेय का तत्त्व क्या है? कल देखिये, कितने तो भी दत्तात्रेय के शिष्य यहाँ आये थे। और इतने सारे दत्तात्रेय के शिष्यों को भी, सब को पेट की बीमारी है। वजह क्या थी ? वजह ये थी, कि दत्तात्रेय कोई हिन्दू नहीं थे, न ही वो मुसलमान थे। वो धर्मातीत। उनका कोई धर्म ही नहीं है। धर्म से परे हैं। धर्म उन्होंने बनाया, जो खुद उसको बनाते हैं। वो ये कैसे हो सकते हैं? जब तक ये भावना हमारे अन्दर पूरी तरह जागृत नहीं होती। साईंनाथ ने कहा है, किसी भी धर्म की निंदा करना ये महापाप है। लेकिन कितने साईंनाथ के शिष्य इस बात को मानते हैं? और यही हमारे अन्दर गुरु तत्त्व है। जिसे हमें जानना चाहिये । और आपको मैंने बताया जैसे मोझेस थे, अब्राहम थे, ये सभी एक ही गुरु तत्त्व से पैदा हुये हैं। और ये गुरु तत्त्व हमारे अन्दर भी बसा हुआ है। इस गुरु तत्त्व को जागृत करने से हम ही अपने गुरु हो जाते हैं। ये कुण्डलिनी के जागरण से हमारे अन्दर जागृत हो जाता है। उसके बाद का जो चक्र है, ऊपर में आप देख रहे हैं इसे ये हृदय चक्र हैं। मैं जल्दी बताऊंगी क्योंकि टाइम कम है। कल दूसरा सब्जेक्ट लेने का है। ये हृदय चक्र है। हृदय चक्र में जो बीचोबीच जगह है, ये जगदंबा का स्थान है। जो जगत् की जननी है, उसका स्थान है। दुर्गा जी का स्थान है। जब आदमी में इनसिक्यूरिटी आ जाती है, जब असुरक्षित महसूस करता है, तब उसका ये चक्र पकड़ता है। बहुत सी औरतों को, जिनको ब्रेस्ट कैन्सर वगैरा बीमारी होती हैं वो इसी चक्र के खराब होने से होती है। अगर वो असुरक्षित अपने को महसूस करती है, तो देखिये उनका जो आदमी है वो गलत रस्ते पे चल रहा है। या उसका कोई ठिकाना नहीं। बच्चे ठीक नहीं। कोई न कोई वजह से असुरक्षित वो महसूस करती है, उनको ये बीमारी है । ड्रपोक औरतों को ये बीमारी हो सकती है। ये चक्र उनका खराब हो जाता है, जो अपने को असुरक्षित महसूस करती है। जब कुण्डलिनी जागृत होती है तब जगदंबा आपके अन्दर जागृत हो जाती है, और वो आपका संरक्षण करती है। उनके संरक्षण के अनेक तरीके हैं। जैसे कि आप जा रहे हैं । जाते जाते एकदम आपने देखा कि अॅक्सिडेंट हो गया। लेकिन आपके जाने से अॅक्सिडेंट टल जायेगा। आप अगर उस ट्रेन में हैं, आप अगर रियलाइज्ड सोल हैं तो सारी ट्रेन बच जायेगी। एक आदमी नहीं छूटने वाला। ये अनेकों के अनुभव हैं। आप भी इसे देख लीजिये। इसलिये जरूरी हैं कि आपका जो हृदय चक्र है, वो ठीक कर दिया जायें । जिनका हृदय चक्र ठीक नहीं होता, उनको अनेक बीमारियाँ लग सकती हैं। जैसे बुरी तरह का ब्राँकायटिस है। बुरी तरह की खाँसी। ये सब इसी चक्र से, इसी चक्र के मिलाप से होती है। अब राइट हैंड साइड में जो चक्र है, यहाँ पर दिखाया हुआ। उस चक्र पे श्रीराम का स्थान है। जब ये चक्र हमारा खराब हो जाता है, श्रीराम का चक्र, श्रीराम मर्यादा पुरूषोत्तम है। जैसे ही हम अपनी मर्यादायें तोड लें, माने ये कि किसी वक्त भी नहा लिया, बेवकूफ़ जैसे। ये मर्यादा तोड़नी हुयी की नहीं हुयी। लंडन में सारे हिन्दुस्तानी लोगों को बीमारी है, साड़े आठ बजे नहा कर के दफ़्तर चले जायेंगे| वहाँ लंग का कैन्सर बहुत होता है। इसी चक्र के ट्ूटने से होता है। ये श्रीराम का चक्र है, इसके टूटने से आपको ये जो श्वास की बीमारी है, वगैरा वरगैरा बीमारी होती है। इसकी बहत सारी मर्यादा है। ठंड, गर्म की मर्यादायें सम्भालनी पड़ती है। राजकारण की मर्यादायें सम्भालनी पड़ती है। सब श्रीराम की …..। आश्चर्य तो ये है, कि जो लोग श्रीराम का नाम लेते हैं उनका हमेशा ये चक्र खराब रहता है। क्योंकि श्रीराम ही उनसे नाराज़ हैं। रात-दिन जा कर के आप उनकी खोपड़ी चाटते हैं। कोई नाराज़ तो होना ही हुआ ना! ऐसे चक्र को भी आप जागृत कर सकते हैं और ३०, ३५ साल का अस्थमा भी आपका ठीक हो सकता है। अगर आपका ये चक्र ठीक हो जायें। अगर आपके पिता मर गये हों सडनली, और आप पे उसका असर हुआ हो तो वो भी इससे दिखायी देता है। पिता हो कर के कुछ आप में गड़बड़ हो तो वो भी इससे दिखायी देता है। जो कुछ भी लंग्ज की बीमारी है वो ज्यादातर राइट साइड़ के चक्र को पकड़ने से हार्ट के राइट साइड़ को पकड़ने से ही होती है। अब उसके ऊपर में जो ये चक्र हैं यहाँ पर ये विशुद्धि चक्र है । ये चक्र हमारे पीछे में यहाँ पर है। ये विशुद्धि चक्र, इसे हम सर्वायकल प्लेक्सस कहते हैं, उसको देखता है। अब इस में सोलह सब प्लेक्सेस हैं। माने सोलह उसकी कलियाँ हैं। अपने आँख, नाक, मूँह, गला और होंठ, यहाँ अन्दर के सारे मसल्स, जीभ वगैरा सब इससे कंट्रोल होते हैं। इतना ये इम्पॉर्ट, बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण ऐसा ये चक्र है । लेकिन जिसका विशुद्धि चक्र खराब हो जाता है, उसकी शकल ही खराब हो जायेगी। उसकी आँखें खराब हो जायेंगी। मतलब बाह्य की जो आँखें हैं, जैसे जलन होना, आँख में लाली आ जाना वगैरा, सब इस चक्र के दोष से होते हैं। किसी किसी के दाँत, उसमें तकलीफ़ हो जाती हैं, वो भी इसी चक्र दोष से हो जाती है। किसी किसी के जिह्वा में तकलीफ़ हो जाती हैं, वो भी इसी चक्र दोष से हो जाती है। इस चक्र के भी दो भाग हैं। लेफ्ट और राइट। बीच का जो चक्र है वो राधा-कृष्ण से स्थापित हैं। राधा-कृष्ण का स्थान है यहाँ। और लेफ्ट का जो है, वो इनकी बहन विष्णुमाया जो थी उसके नाम से है। अब जो आदमी अपने मन में ऐसे विचार करता है, कि ‘मुझ से बुरा कोई नहीं है। मैंने ये पाप किये। मैंने वो पाप किये। उसका ये चक्र पकड़ता है। जिस आदमी का लेफ्ट चक्र पकड़ता है, विशुद्धि का, उसमें एक बड़ा दोष आ जाता है, कि ऐसे तो वो बहुत अपने को दोषी समझता है। लेकिन जब बोलता है तब बिजली गरजती है। एकाध ही शब्द बोलेगा लेकिन बड़े ही सक्कास्टिक, एकदम ही काट खायेगा। ऐसे तो ठीक बोलेगा , लेकिन हमेशा टेढ़ा ही बोलेगा । क्योंकि उसका ये जो लेफ्ट साइड़ का चक्र है, ये पकड़ा रहता है। राइट का चक्र है इसमें विठ्ठल-रखुमाई का स्थान है। मतलब ये कि जब कृष्ण राज करते थे, तब का है राइट साइड। जब राइट साइड का चक्र पकड़ता है, तो आपको जुकाम आदि जो बीमारियाँ हैं, वो सब शारीरिक बीमारियाँ होती हैं। और सोचने में भी मनुष्य राइट साइड का होता है उसमें एक तरह का अहंकार भी आ सकता है। क्योंकि वो जब बोलता है, या कुछ करता है, उसमें इतना अहंकार आ जाता है, कि उसकी छाया इस चक्र पे भी आ जाती है। बोलते वक्त में अगर अहंकार का उपयोग करें, तो इस पर भी आ जाती है। और इसी कारण ये भी चक्र जब खराब होता है तो भी बड़े दुषण हो जाते हैं। इस चक्र को सब से ज्यादा कोई खराब करता होगा तो वो है सिगरेट। सिगरेट से कैन्सर होता है। उससे तकलीफ़ होती है। कितना भी कहें सिगरेट छूट नहीं सकती। पर सहजयोग में आने से सिगरेट एकदम यूँ छूट | जायेगी। आपको इसलिये कोई मेहनत करने की जरूरत नहीं। एकदम सी आपकी सिगरेट अपने आप छूट जायेगी । आप सिगरेट पीना छोड़ दें। ये इस चक्र की बात है। अब ये चक्र और ये चक्र में कल बताऊंगी। देर हो गयी है। आप जानते हैं कि इसके बाद जो काम है बहुत उसमें बहुत टाइम लग जाता है। इस प्रकार आपको ये सोचना चाहिये, कि हमारे अन्दर परमात्मा ने कितनी सुन्दर व्यवस्था की है। उन्होंने कितनी सुन्दर हमारे अन्दर व्यवस्था की हुयी है और कितना इन्तजाम किया है। जो उत्क्रान्ति में हमने दशावतार बनाये थे, वो सारे दशावतार इसी प्रकार से हैं, कि नाभि चक्र में लक्ष्मी-नारायण हैं और लक्ष्मी-नारायण से ही आप आगे बढ़ कर के यहाँ तक आने पर आपके जो है, आठवे अवतार तक है, उसके बाद आठवाँ अवतार श्रीराम का है, वो आपका यहाँ पर है। माने यहाँ राइट हार्ट पे आता है। सातवा होता है, सातवा श्रीराम का होता है और आठवाँ श्रीकृष्ण का यहाँ । इस प्रकार उत्क्रान्ति में जो जो अवतरण हुए उसी प्रकार है। नववाँ अवतार यहाँ होता है। दसवाँ अवतार यहाँ। इस प्रकार दस अवतार हैं और हमारे अन्दर स्थित हैं। नववाँ अवतार मैंने आपसे पहले ही बताया, ख्रिस्त हैं। जो कि हम जीजस क्राइस्ट नाम से जानते हैं। उनके बारे में कल बताऊंगी। और सहस्रार के बारे में बताऊंगी। इस प्रकार हमारे जो चक्र हैं, उनमें आप देख सकते हैं कि कैसे परमात्मा ने कार्बन से ले कर के हमें इन्सान बनाने में मदद की। अनेक बार संसार में अवतरण आये। और उन्होंने किस तरह से हमारी मदद की। और आगे के लिये भी वो हमारी कैसी मदद करने वाले हैं। | अब हम लोग रियलाइजेशन की थोड़ी कोशिश करेंगे। और मुझे आशा है, कि आज भी बहत से लोग पार हो जायेंगे। कल भी बहुत लोग हो गये थे।