Birthday Felicitations

New Delhi (भारत)

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Janam Diwas Puja – Prem Tattwa 21st March 1995 Date : Place Delhi : Type Puja Hindi & English Speech Language

[Original transcript Hindi talk, scanned from Hindi Chaitanya Lahari]

अपने ही जन्मदिन में क्या कहा जाए? जो उम्मीद नहीं थी वो घटित हो गया है आप इतने लोग आज सहजयांग में दिल्ली में बैठे हुए है, इससे बढ़कर एक माँ के लिए और कौन सा जन्म दिन हो सकता है? आप लोंगों ने पर उसमें भी खुले आम कोई गलत काम करने की हिम्मत नहीं क्योंकि समाज इतना जबरदस्त है कि उसे खींच लेगा। इसलिए जो बात मैं आज आपको बताने वाली हूं वो ये है कि एक अपने देश की संस्कृति इतनी ऊंची जो अब भी मानी जाती है और अब भी अपने यहां लोग नैतिकता का स्तर मानते हैं। ऐसे देश में विचार करना चाहिए कि यहां किसने इतना अधिक कार्य किया। ये की शक्ति ने और इस शक्ति के सहार उसने अपने बाल-बच्चे, अड़रास-पड़ास और सारे समाज की भी धर्म पर स्थापना की। हालांकि अब विदेशी संस्कृति का असर आ रहा है और उससे हो सकता है कि हम लोग भी थोड़े बहुत प्लावित हो सकते हैं। पर अतिशयता में जाना बड़ी कठिन बात है क्योंकि हम लोग जकड़े हुए हैं अपने दंश की परम्पराओं में। अपना देश इतना सौभाग्यशाली है कि यहां पर एक से एक महात्मा हो गए इतने सन्त हो गए, इतने यहाँ पर अवतरण हुए, हिन्दू धर्म में ही नहीं मुसलमानों में भी और आप जानते हैं सिखों में बड़े-बड़े धरमत्मा इस देश में आए। इस देश की जो विशेषता है कि इस भूमि में ही जैसे आध्यात्म फंसा हुआ है न जाने कैसे लोग अध्यात्म की और चलते हैं और मानते हैं! आत्मसाक्षात्कार को प्राप्त किया है, ये भी आप का जन्मदिन है। एक महान कार्य के लिए आप लोग तैयार हुए हैं। ये महान कार्य आज तक हुआ नहीं। उसके आप संचालक हैं। इससे बढ़कर और मेरे लिए क्या सुख का साधन हो सकता है? कभी सोचा भी नहीं था कि अपने जीवन में ही इतने आत्मसाक्षात्कारी जीवों के दर्शन हांगे और इतना अगम्य आनन्द उठाने को मिलेगा। कार्य स्त्रियों ने किया। भारतीय स्त्री प्री OEN एक वातावरण की विशेषता कहिए जिसमें कि आज मनुष्य एक भ्रति में घूम रहा है। एक तरफ विदेश की तरफ नजर करने पर ये समझ में आता है कि ये लोग एकदम ही भटक गए हैं। वहाँ पर नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रहा । अनीति के ही रास्ते पर चलना, अग्रसर होना वो बड़ी बहादुरी की चीज समझते हैं और सीधे नरक की ओर उनकी गति है। इस गतिमान प्रवृत्ति को रोकना बड़ा ही कठिन काम है, लेकिन वहाँ भी ऐसे अनेक हीरे थे जिन्होंने सोचा कि बाहर आएँ। सहजयोग की प्रणाली में हम लोग संतुलन में खड़े हैं । मतलब भारतीय संस्कृति में जो गंदगियां हैं उसे तो बिल्कुल निकाल ही देना पड़ेगा और निकल जाती हैं। सहजयोग में आने के बाद बहुत से लोग इस चौज़ को छोड़ देते हैं। लेकिन अब भी मैं देखती हूं कि कुछ न कुछ चीज़ों से बंधे हुए सहजयोगी हैं और इसका कारण है कि इतने दिनों से जो चीजें चली आई हैं और मान्यता रही उसके प्रति एकदम उदासीन हो जाना उन्हें कठिन लगता है। दूसरी तरफ देखने पर हमें पता चलता है कि मनुष्य के लिए बुरी तरह से कठिन परिस्थितियाँ बनाई गई हैं कि आप अपने जीवन को एक कठिन बंधन में बाँध ले कि हम धार्मिक हैं और अगर आप धर्म नहीं करेंगे तो आपके हाथ काट देंगे, आपकी आँख निकाल दंगे, आपको जमीन में गाड़ देंगे। ये अतिशयता हो गई और इसके साथ साथ दूसरी तरफ जैसे मैंने बताया बहकाव की भी अतिशयता है। दोनों तरफ अतिशयता है। आपको समाधान करना चाहिए कि आप इस विशेषकर अब हम लोग उत्तर हिन्दुस्तान में बैठे हुए हैं। मैं देखती हूं उत्तर हिन्दुस्तान में या तो मुसलमानों के परिणामस्वरूप हो, चाहे जैसा भी हो औरतों की दशा बहुत खराब है। औरतों को बहुत छला जाता है, सताया जाता है। शक्तिस्वरूप औरत का कोई मान नहीं है। कहा जाता है यत्र नार्या: पूज्यंते, तत्र रमन्ते देवता। कहा जाता है जहां स्त्री पूज्यनीय हो और उसकी पूजा की जाती हो वहीं देवता रमण करते भारतवर्ष में उत्पन्न हुए, इसकी संस्कृति जो है वो संतुलित है। हमें इतना बताया नहीं गया है धर्म के बारे में किसी ने खास चर्चा भी नहीं करी। लेकिन अधिकतर हिन्दुस्तानी अधर्म में नहीं उतरते। ये दूसरी बात है उसके पास अगर पैसा आ जाए बहुत, उसका दिमाग खराब हो जाए या वो राजकारण में चला जाए या और कोई इसी तरह की चीज को प्राप्त कर ले तो हो सकता है कि उसको ये बहकावा मिल जाए। ন

पहले तो स्त्री भी पुरुष का मान रख और पुरुष भी स्त्री का मान रखे। में देखती हूं क सहजयोग में अब बहुत कुछ ठीक हो गया लेकिन हम लोग जब शादियां करते हैं, सहजयाग में, तो जिन लड़कियों की शादियां इंग्लैंड-अमेरिका में हुई उनका दिमाग खराब हो जाता है, सबका नहीं, और उल्टी बात ये है कि जिन लड़कियों की शादियां हिन्दुस्तान में होती है वो तो कहती हैं कि भगवान बचाए रखे बाबा! हैं। इसका मतलब यह नहीं कि औरतों का ही राज हो या वो किसी तरह से आततायी हों। इसका मतलब यह है कि स्त्री पहले पूजनीय होनी चाहिए, उसके अन्दर पूजनीय गुण होने चाहिए। वो अगर पति का अपमान करती है और अपने बच्चों की तरफ ध्यान नहीं देती और भी गलत-सलत काम करती हो तो वो स्त्री तो पूजनीय हो नहीं सकती और वही स्त्री पूजनीय होती है जो अत्यन्त प्रेममयी हो। जिस औरत में प्रेम का सागर बसा हो, लोग उसी को पूजते हैं, और जो नहीं है उसके सामने तो चाहे न कहें कोई कुछ, पर पीठ पीछें उसकी बुराई करते हैं । सांस, संसुर, ये वो, मार झंझट। सब लोग तो मारने को दौड़ते हैं। कहने का मतलब ये कि संतुलन न तो वहाँ है न यहाँ। ये संतुलन स्थापित करने के लिए सहजयोगियां को समझ लेना चाहिए। इसका मतलब ये नहीं कि काई पति को अपने सिर पर बैठा ले, या कोई पत्नी को सिर पर बैठा हमारे यहाँ स्त्री को शक्ति माना जाता है, पर शक्ति जैसे ये आप इतने यहां पर बिजली का प्रदर्शन देख रहे हैं. ये स्वयं शक्ति नहीं, शक्ति तो कहीं और से आ रही हैं और इसका यहां प्रदर्शन मात्र है। तो इसी तरह स्त्री एक शक्ति स्वरूप होती है, पर इसका प्रादुर्भाव जो है वो बाह्य मं पुरुष के रूप में होता है। उसके बच्चे, उसकी रिश्तेदारी के लोग, उसके पति, उसके ससुर, ये सब पुरुष उस स्त्री की शक्ति से प्लावित होते हैं और उस प्रेम की शक्ति से प्लावित होने के बाद उनमें भी एक तरह का बड़ा अनूठा सा संतुलन बन जाता है। पर जहां पर ये स्थिति नहीं होती. जहां पर घर की माँ और घर की स्त्री और रिश्तेदार इन औरतों में उस प्रेम का प्रदर्शन नहीं होता है, उल्टे क्रोध आदि षडरिपुओं से अगर वो भरी रहती हैं तो ऐसे घरों में कभी ल। इसका मतलब है कि प्रत्येक का एक मूल्यांकन होना चाहिए। सबको Valuation करने के बाद आप समझ सकते हैं कि कहाँ तक आप संतुलन में हैं। आप दूसरों की बात मत सोचिए, अपनी बात सोचिए। जहाँ आपको जो कहना है वो कहना ही होंगा और जो कुंछ आपको सुनना है वो सुनना ही होगा। मैं देखती हूँ कि सहज योग में हमने पहले शुरुआत कुटुम्ब से की। कुटम्ब व्यवस्था से सहजयाग का धीरे धीरें बाँधा है और जब कुटुम्ब ठीक हो गए फिर उसके बाद हमने एक-एक चीज पर कृदम रखा है। आज आपका पता है कि ये पच्चीसवां सहस्त्रार इस बार मनाया जाएगा। 25 साल हो भी प्रेम या आनन्द आ ही नहीं सकता। ये स्त्री का ही एक बड़ा भारी कार्य है। उसमें हम दबे जा रहे हैं। ये क्या शक्ति है जो सोचती है कि मैं दबे जा रहीं हूँ। वो तो ये सोचती है, कि ये प्रकाश देना मेरा कर्त्तव्य है और उसे मैं कर रही हूँ। खुशी-खुशी सारा काम करती है। इस समझ का आना जरूरी है हांलाकि औरतों को इतना दबाया गया है, इस समझ के कारण इतनी उनकी अवहेलना करी है। एक दूसरी चीज खड़ी हो रही है जो कहती है समाज में कि ये औरतों पर दबाव हम चलने नहीं देंगे। हम पुरुषों को ठिकाने लगा देंगे। उनसे हम हर चीज़़ में लड़ेंगे। उनको हम बिल्कुल बेकार कर देंगे। ये सब करके देख लिया और देशों में । जहाँ-जहाँ ये हो रहा है वहां के बच्चों का हाल देख लीजिए और वहां की सब चीजों का हाल देख लीजिए। अब समझें इसमें क्या है कि मनुष्यों में ये समझ आनी चाहिए। मनुष्य में ये समझ सिर्फ स्त्रियों में ही नहीं पुरुषों में भी आनी चाहिए। ये पुरुषों को सोच लेना चाहिए कि हमारी स्त्री जो है ये स्वयं साक्षात् लक्ष्मी स्वरूप है और इसका मान हमें रखना चाहिए। गए जब सहस्त्रार खुला था, तब से लोगो ने इस चीज को प्राप्त किया और प्राप्त करके इससे बड़े प्लावित हुए, पुष्ट (nourish) हुए। आज इस स्थिति में आ गए। अब हमारे लिए आगे क्या कर्तव्य है? कुटुम्ब से शुरुआत करें तो कुट्म्ब में हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। पहली चीज है शांति जहाँ शांति नहीं होगी कोई चीज़ वहाँ पनप नहीं सकती। समझ लीजिए यहाँ गमलें रखे हैं और ये सब हिलने लग जाएं, तो ये बढ़ेंगे? खत्म हो जांएगे। ता सबसे पहली चीज हमे शांति प्रस्थापित करनी चाहिए। इसमें आदमी को भी मान देना चाहिए और औरतों को भी समझ रखनी चाहिए। दोनों जगह ये चीज़ रखने से पहले घर में शांति होने से अपने बच्चं जो है वो सुरक्षित रहें और उनके अंदर अपने प्रति, स्वंय के प्रति एक जागरुकता आएगी और वे समझ लेंगे कि वो भी सहजयोगी हैं और माँ-बाप भी सहजयोगी हैं। उनका परमकर्त्तव्य होता है कि वे अपने माँ-बाप का नाम और भी उज्जवलित करें। का

हिन्दी भाषा आनी चाहिए सहजयोग में। मैं चौदह आपकी Official मान्याता प्राप्त भाषाओं में कैसे बोल सकती हूँ और आप से वार्तालाप कर सकती हैं। तो जो भाषा माँ को आती है, हिन्दी मेरे समझ में आती है। हिन्दी मैने कभी पढ़ी नहीं, कभी हिन्दी मैने सीखी नहीं, पर हिन्छी भाषा का हमेशा मुझे बड़ा मान रहा और इसलिए हिन्दी भाषा मुझे आती है। इसलिए आप लोग सब अगर हिन्दी भाषा सीख लें तो सहजयोग पर बड़ी मेहरबानी हो जाएगी और इससे आप लोगों का भी बड़ा लाभ हो जाएगा। बहुत से लोग हिन्दी सीख गए। मेरे टेप सुनकर बाहर परदेस के लोग जो हैं वो बड़े जोर से चिपक जाते हैं किसी चीज़ पर। वो लोग हिन्दी बोलने लग गए और हमारे यहाँ अब भी बहुत से लोग हैं जो ये कहते हैं कि माँ हिन्दी में भाषण मत दो। आपको चाहिए तो तमिल में दो या तेलुगु में दो। मुझे नहीं आती न तमिल न तेलुगु। मैं क्या करू, इसलिए ये जो भी हमारे अन्दर भेद हैं इनको बिल्कुल खत्म कर देना चाहिए। जातीयता के भेद तो हैं ही हमारे अन्दर बसे हुए। एक साहब मुझे कहने लगे हाँगकाँग में कि हिन्दुस्तान में जातीयता बहुत है अब भी अब भी सहजयोगियों में जातीयता है। वो बराह्ामण हैं साहब। मैंने कहा अच्छा बताइये कि क्या आप किसी हरिजन से शादी करेंगे। घबरा गये हरिजन से ! अरे भई हरि कजन हैं उनसे शादी करने में क्या? हरिजन से नहीं कर सकते। तो पहले बाकी सब लोगों में हो जाये, फिर धीरे-धीरे हरिजन को भी मान लें। लेकिन परदेश में ये झगड़ा ही नहीं। कितनी हरिजन लड़कियों की शादियाँ मैने बाहर करवा दीं और लड़कों की भी। उनको पता ही नहीं जाति-पाति करके कोई चीज भी होती है, कॉई हरिजन होता है। इस प्रकार हमारे अंदर इतनी भिन्नता का स्वभाव है हम भिन्न हैं, वो भिन्न हैं। अब भिन्नता भी आवश्यक चीज़ है। परमात्मा ने हरेक को भिन्न-भिन्न बनाया हरेक की शक्ल अगर एक बनाते तो कोई भी किसी को पहचान नहीं पाता। जैसे कोई आपने फौज खड़ी कर दी, ऐसे सबकी शक्ल हो जाती। तो भगवान ने ऐसी सृष्टि की कि एक पत्ता दूसरे से नहीं मिलता। ऐसे पत्ता बनाया है कि ये पत्ता कहीं आप दुनिया में जाकर ढूंढे तो बिल्कुल.ऐसा नहीं हो सकता बताइये ! ये उसकी कमाल है! पर गर ये सोचने लग जाए कि भिन्नता ही हमारी विशेषता है तो फिर आप पत्ते के ही स्तर पर हैं उससे आप उठे ही नहीं। उससे उठकर देखिये तो आप समझ जायेंगे कि आप जो हैं वो एक विशेष व्यक्ति योगीजन जिनकी कि जात-पात कुछ भी नहीं। शास्त्रों में लिखा है कि संन्यासी की जात-पात कुछ भी नहीं। सन्यासी हो गये! अब अब मैं देखती हूं कि सहजयोग बढ़ते-बढ़ते एक समाज में तो आ ही गया है किंतु और भी क्षेत्रों में बढ़ रहा है | मानों अब हम लोग जैसे कोई मद्रास से आया है, कोई महाराष्ट्र से आया है, कोई कहीं से आए हैं, तो इस तरह से विचार करते हुए सहजयोग बढ़ रहा है। अब इसमें भी इसी तरह का होता है जैसे दिल्ली वाले आए तो उन्होंने कहा माँ आपका जन्मदिन दिल्ली में होना चाहिए। अच्छा भाई कर देंगे। वो तो मानना ही पड़ेगा, दिल्ली वालो को कौन मना कर सकता है? यहाँ पर जन्मदिन न हो। बाप रे बाप! हो गया फिर मेरा! तो मैने कहा भाई शांतिपूर्वक यह चीज़ ठीक है, दिल्ली में ही करो वो अच्छा रहेगा, और व्यवस्था भी यहाँ अच्छी होती है। सब लोगों का इन्तजाम भी अच्छा होता है। सब दृष्टि से मैने कहा ठीक है। लेकिन उसमें हम दिल्ली वाले हैं बम्बई वाले हैं ऐसा लेकर लोग झगड़ा शुरू कर देते हैं । अब यह तो बड़ी ही संकुचित प्रवृत्ति है। मतलब जो सहजयोग का सामूहिक स्वरूप है सामूहिकता में अगर आप नहीं उतरेगें तो आपका जो संतुलन है वो डाँवाडोल हो जाएगा। काी उसे समझने में हमने गलती की। अगर हम कहें कि इस बार बम्बई में ही हो जाए जन्मदिन। क्या है कहीं भी हो जाए, जन्मदिन तो होगा ही। हमारी तो उम्र बढ़ने ही. वाली है। आप चाहे कहीं भी करिए। लेकिन इसमें भी उलझन हो जाएगी। भई इस बार माँ ने ऐसा क्यों किया। या तो लोग कहेँगे कि हमसे कोई गलती हो गई और ये कहेगें कि माँ आपने ऐसा क्यों किया है, दिल्ली वालों के यहाँ इतनी बार किया था, इस बार क्यों नहीं कर रहे दिल्ली वालो के यहाँ। तो ये जो हमारा तदात्मय गलत चीज़ों से है कि हम यहाँ के रहने वाले है, हम वहाँ के रहने वाले है। पहले तो यहाँ तक होता था कि एक गली में रहने वालों में भी झगड़ा होता था, अब वो खत्म हो गया है। फिर अलग-अलग मोहल्लों में रहनें वालों में भी झगड़ा होता था और हरेक मोहल्ले में रहने वालो में बड़ा झगड़ा होता था और हरेक मोहल्लों के लोग अलग-अलग बैठकर, मैं देखा करती थी। अरे बाप रे, अभी भी चल ही रहा है मामला। फिर वे मोहल्ले छूटे, हर जगह। अब भाषा पर भी थोड़ा बहुत आ गए भाषा पर भी ये वो भाषा बोलता है, वो दूसरी भाषा बोलता है। सबसे अच्छी बात यह है कि हमारे देश की जो भाषा वह सीख लेनी चाहिए। चाहे आप हिन्दू हों, मुसलमान हों, मराठी हों चाहे अंग्रेज़ हों, चाहे कुछ हों, पहले आपको

क्या रह गया? अंदर से छूट गये सो सन्यासी। तो आपकी जात-पात कैसे रह गई? इसका बड़ा विरोध करना चाहिए। जात-पात का बड़ा विरोध करना चाहिए और सिर्फ गुण ग्राह्यता होनी चाहिए। किसमें क्या गुण हैं, उसको पाना चाहिए। और उसको समझना चाहिए। इस एक मर्यादा से जब हम गुजर जाते हैं तब फिर देश-विदेश से हमारा संबंध आता है। अब खिंचाव। और चौथी उसकी चिट्ठी आई कि माँ बड़े आश्चर्य की बात है मेरे लड़के को मैं अस्पताल ले गई थी। तो उन्होंने कहा कि इसके सब ठीक है, बिल्कुल स्वस्थ है पर हिन्दुस्तानियों का ऐसा नहीं। एक बार माँ से हमें मिला दो, अगर माँ मेरे चच्चे को ठीक करेंगी तो वो ठीक होंगा। माँ की खोपड़ी पर लादे बगैर वो सोचते ही नहीं कि उनका बच्चा ठीक हो सकता मैं आपसे क्या बताऊँ कि परदेश में मैंने जो लोग देखे हैं है। कितना बड़ा फर्क है वो मैक्सिको में बैठी हुई, मैं उसका क्या इलाज कर सकती हूँ। मै बस आपको प्रार्थना कर रही हूँ आपके पास चिट्ठी भेज रही हूँ। ये उसका बिमारी है बस। अब ये श्रद्धा की जो बात है। प्रेम जब श्रद्धामय हो जाता है, श्रद्धामय से अंघश्रद्धा से नहीं। आपको अनुभव है मेरा आप जानते हैं मुझे, कोई नई बात नहीं। वो अगर श्रद्धामय हो जाये तो कैसे काम बनते हैं। ये समझने वाली बात है। और अगर श्रद्धा सिर्फ यह हैं कि हम तो माँ को बहुत मानते हैं। ऐसे मानने वाले ईसा को मानने वाले बैठे है, मोहम्मद को मानने वाले बैठे हैं, उनको मानो। अरे भई तुम क्या हो? तुम्हार अन्दर कौन सी विशेषता है। तुमने क्या प्राप्त किया है? इसे सोचना होगा। सो हमने ये देखा कि जो कुछ भी इन लोगो ने इतनी आसानी से प्राप्त किया उसकी वजह ये है कि एक दम प्रेम से शुष्क हो गए। इनके अंदर प्रेम इनको मिला ही नहीं और जैसे ही उनको प्यार मिला एकदम उसकी ओर पूरी तरह से आकर्षित हो गए। और उस प्रेम को पाने के लिए. उनको दुनिया की कोई चीज नहीं चाहिए। कोई भी चीज़ नहीं। अब आते हैं गणपति पुले में हिन्दुस्तानियों की शिकायत बहुत मिलती है। खाना अच्छा नहीं। मद्रासी कहेगा कि मुझे खाना पसंद नहीं, तो लखनऊ वाले कहेंगे साहब क्या खाना बनाते हैं। सबके खाने का शौक, उनकी बीबियों ने ऐसे बिगाड़ रखें हैं कि उनको काई खाना ही पसंद नहीं आता। अब इस हिन्दुस्तान में कौन सा एक खाना बताइये जिसको बनाने से लोग खुश हों। इनको ये पसंद नहीं तो उनको वों पसंद नहीं। पर ये, (बाहर के लोग) कभी नहीं कहेगें कि खाना अच्छा नहीं, हाँलाकि मा+। उनमें बहुत ज्यादा यांत्रिक लोग हैं। यंत्र में विश्वास रखते है और सांइस में विश्वास रखते हैं, पढ़े-लिखें हैं। लेकिन सहज में जब वे उतरे, तो जैसे कोई प्रम सागर में ही उतर गया हो। उसमें डुबकियाँ लगा रहें हैं। अब यहाँ पर आप देखिये कि पाँच सौ आदमी बाहर से आये हैं कितना नितांत प्यार है उनका मेरे साथ। क्योंकि वो कहते हैं कि माँ जब हम सोचते हैं कि माँ हमें आपसे प्यार है तो ऐसा लगता है कि चारों तरफ से हमें प्रेम व आनंद के सागर ने घेर लिया हो। कल देखिये उनको कुछ समझ में ही नहीं आ रहा था, कव्वाली पर आनंद की लहरियों से वो भरे हुए थे उनसे सीखने की बात यह है कि बिल्कुल निर्वाज्य किसी भी तरह की आशा न रखते हुए वो प्रेम में उतरना चाहते हैं। और क्योंकि हम लोगों को भी प्रेम की इतनी महत्ता मालूम नहीं है अब भी हिन्दुस्तानियों की चिट्ठयों आयेंगी मेरा बाप बीमार है, मेरे बाप का ससुर बीमार हैं वगैरह वगैरह। उसको आप दें दीजिये। उसको नौकरी दे दीजिये। मेरा दिवालिया हो गया। मेरा भाई जेल जा रहा है। सब यही बातें। यहाँ तक कि वो सोचते हैं कि एक तरह से मेरे ऊपर उनका अधिकार है क्योंकि मैं भी हिन्दुस्तान में पैदा हुई हूँ और आप लोग भी हिन्दुस्तान में पर ये एक बड़ी निम्न चीज है, इसको मांगने की जरूरत नहीं, अगर आप सहजयोगी हैं ये अपने आप घटित हो सकता है। ये विश्वास परदेसी लोगों का है। अब आपको मैं एक आश्चर्य की बात बताती हूँ। एक औरत संयुक्त राष्ट्र में काम करती थी। एक सहजयोगिनी है वो। अब Maxico में चली गई संयुक्त राष्ट्र में ही। उसका एक लड़का है, उसको ऐसी बीमारी हो गई कि वो बीमारी पुश्त दर पुश्त आती रहती है और इस लड़के पर बड़ी जल्दी आघात हुआ और एक महीने के अंदर वो बच्चा मरने वाला था। इस सहजयोगिनी ने मेरे पास तीन चिट्ठियाँ भेजीं। उसने उस पर नाम लिखकर भेजा कि ये बीमारी है, पता नहीं कौन सी अरजीब- गरीब लम्बी-चौड़ी बीमारी उसको है और ऐसी तीन चिट्ठियां मेरे पास आईं। मुझे समझ नहीं आया कि उसके लिए क्या कहूँ। इन्सानियत की भाषा में तो कहा नहीं जाता। पर एक तरह से जैसे खिंचाव. पहले खाना बहुत खराब होता था। अब जरा बहुत अच्छा हो गया पर कभी इन लोगों ने ये नहीं कहा कि माँ खाना अच्छा नहीं। अब बाथरूम के लिए भी बड़ी अजीब सी बात है कि हिन्दुस्तानियों ने कहा कि माँ हमको ये भारतीय गुसल नहीं चाहिए। हमको पश्चिमी गुसल चाहिए और पश्चिम वालों ने कहा माँ हमको भारतीय गुसल चाहिए। बड़ी साफ चीज है। अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या करें। मैने कहा अच्छा ठीक है भारत के लोंगों को विदेशियों की ओर रख दो और विदेशियों को भारतीयों के स्थान पर रख दो। काम

खत्म। पर हम लोग बड़ी मांगें करते हैं, ये चीज नहीं ठीक वो चीज नहीं ठीक। ये चीज ठीक कर, दो वो चीज ठीक कर दी। कितनों के घर में जुड़े हुए गुसल होंगे। लेकिन इससे हम लोग सोचते हैं कि हम बड़े ऊँचे हो गये इस तरह की मांग करने से और इन लोगों से पूछो तो कहते कि माँ शरीर और भिन्नता तो चाहिए हरेक चीज में इसमें कोई शक नहीं। हरएक आदमी में भिन्नता होनी चाहिए। पर किस चीज में अपना-अपना आनंद व्यक्त करने में। कल देखिये डांस कर रहे थे लोग, जैंसा भी आ रहा था, जिस तरह से भी आ रहा था। सब की भिन्नता थी। एक जैसे कोई भी नहीं नाच रहा था ये भिन्नता हमारे अंदर है। अगर रहे तो उससे हम का तो बहुत आराम उठा लिया। उन्होंने तो बहुत उठा लिया शरीर का आराम। अब आत्मा का आराम दो। शरीर का औराम नहीं चाहिए। जो कि हमने उठाया नहीं वो ही सहजयोग में खोजते हैं कि हमें शरीर का भी आराम मिल जाये आपसे कहने से तो फिर आप कहेंगे शरीर का आराम तो चलो हम जमीन पर सोंयेंगे। ये नहीं मेरा मतलब, मेरा मतलब ये नहीं था। मतलब यह है किहमें यह सोचना चाहिए कि हमें अब आत्मा का कार्य करना है। आत्मा को संताष में रखना हैं। जितना हम शारीरिक चीजों के बारे में सोचेगें उतनी ही हमारी आत्मा दु:खी हो जाती है, उतना ही उसका प्रकाश कम हो जाता है। और जितना ही हम बाहर के लोगों के लिये, दूसरे लोगो के लिए वातावरण के लिए सोंचेगे उतने ही हम बढ़ते जायेंगे| आत्मा का प्रकाश बढ़ता जायेगा। उसमें आपको हैरानी होगी कि आप अपने को पाइयेगा कि आप बिल्कुल विश्व के एक नागरिक हो गये। आपके अंदर विश्व जैसे समा गया। अब बहुत से लोग मुझको कहते हैं कि माँ आप को हरेक चीज कैसे याद रहती है जैसे अब इसको देख लिया, बस देख लिया बस हो गया चित्र सा बन गया सब चीज, आप लोग चित्र से मेरे हृदय में है। ये कैसे होता है, क्योंकि मैं अपने अंदर हूँ ही नहीं। सब बाहर ही हूँ। मैं सोचती भी नहीं अपने बारे में, कुछ विचार ही नहीं करती। वो करने की मेरे अंदर शक्ति ही नहीं, तरीका ही नहीं कि अपने बारे में सोचती बैठी रहूँ। कभी नहीं, मेरे साथ किसने क्या किया, मेरे साथ किसने ज्यादती की, कभी नहीं, हो गया सो हो गया। लेकिन जो कुछ भी ब्राह्य में है। इसमें जब आप अपनी आत्मा का प्रकाश देखेंगे तब आप में विश्व की पूर्ण कल्पना हो जायेगी। कोई पहाड़ी है वहाँ चले गये, पहाड़ी में भी अपनी आत्मा का प्रकाश देख अलग-अलग तरह के आनंद का अनुभव दूसरों को द सकते हैं आनंद अपने लिए नहीं। हम दूसरों को कितना आराम दे सकते हैं। दूसरों को हम कितना आनंद दे सकते हैं। हम दूसरां में कितना प्रकाश ला सकते हैं इसका विचार हमेशा रहना चाहिए। कभी-कभी मैं नहीं कहती, पर कभी-कभी हिन्दुस्तानी भी लिखते हैं कि माँ मेरी प्रगति कराईये। मैं चाहता हूँ कि मैं इन चीजों से हटकरके, ऊँचा उठ जाऊँ। क्योंकि जो भी चिट्ठी लिखते वह अधिकतर बकार की चीजें, ये बीमार है वो बीमार है। ऐसा है वैसा है। और कोई-कोई बहुत प्यारी चिट्ठियाँं लिखते हैं और उससे मैं बिल्कुल गद्गद हो जाती हूँ कि इन्होने अपना मार्ग ढूंढ लिया है इन्होंने देख लिया है इन्हें कहाँ जाना है । अपनी मॉजल को इन्होंने पहचान लिया है। बस इससे ज्यादा मुझे कुछ नहीं चाहिए कि मैं देखती रहूँ और उसको आत्मसात करती रहेँ। पर चाहत ऐसी नहीं है किसी चीज की जो कि आप कह सकते हैं, क्योंकि जो चीज हमेशा बढ़ रही है, क्षितिज के जैसे, Horizon के जैसे उसके लिए आप कैसे कह सकते हैं कि आपकी क्या चाहत है? आपका जीवन इसी तरह से अत्यंत सुन्दर हो जाए, अत्यंत सुगन्धित और सबको आह्वाद देने वाला, सबको आनंद देने वाला हो जाये, यही मैं चाहती हैं। आप लोग कभी-कभी राजकारण भी करते हैं कुछ करते हैं इसकी जरूरत नहीं। सहजयोग में आपको पैसा कमाना नहीं। कोई पदवी लेनी नहीं, कुछ नहीं। इसमें आपको अपनी प्रतिष्ठा ही पानी है जिस प्रतिष्ठा में आप एक विश्व के जानने वाले, विश्व में उतरने वाले विश्व की परखाह करने वाले, उनकी तकलीफ और परेशानियों को दूर करने वाले और सबको ज्ञान देने वाले, ऐसे महान-महान पुरुष हो सकते हैं और मेरा यही आशीर्वाद है कि सब लोग इसी तरह से अपने को बढ़ायें, अपनी ओर नजर करके देखिये कि क्या मैं इस तरह से हूँ? सकंगे। हर एक चीज में जब आप आत्मा का प्रकाश देखते हैं, हर एक चीज में आपको कोई चीज भूलती नहीं, उसका आनंद भूलता नहीं। पर उसके वारे में फिक्र नहीं लगती कि ये किसका कालीन है, मार लो, इसको खरीद लें। सिर्फ देखना मात्र बनता है और जब देखना मात्र प्रग्लभ होता जाता है, बढ़ता परमात्मा . आपको आशीर्वादित करे। जाता है, बढ़ता जाता है तो आपका व्यक्तित्व एक विश्व को लेता है और यही स्थिति अब आप सब में आनी चाहिए। भर ।