Shri Mahalakshmi Puja

(भारत)

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Shri Ganesha Puja 21st December 1991 Date : Kolhapur Place Type Puja Speech Language English, Hindi & Marathi

आप लोग इतनी दिल्ली से यहाँ पर पहुँचे हैं और सब का प्यार है जो खिंच के लाया आपको यहाँ पर। मैं दूर समझा नहीं सकती कि मुझे कितना आनन्द हुआ है कि आप लोग सब यहाँ हैं। दिल्ली में तो मुलाकात होती ही रहती है और बहुत लोगों से मुलाकात होती रही और सब को देखते रहे हम और आप लोगों ने बहुत प्रगति कर ली है। बड़े आश्चर्य की बात है, दिल्ली जैसा शहर जिसको की मैं हमेशा बिल्ली कहती थी। मैं कभी दिल्ली कहती नहीं थी। क्योंकि वहाँ के लोग, जिस वक्त मैं वहाँ रही, जब मेरी वहाँ शादी हुई तो सिवाय पॉलिटिक्स के कुछ बात ही नहीं करते थे । लेकिन शुरू के जमाने में वहाँ बहुत बड़े बड़े लोग हो गये। और जब वो पॉलिटिक्स की बात करते थे, तो यही कि, ‘हमारे देश की हालत कैसे ठीक होगी?’ क्योंकि मेरे पिताजी कॉन्स्टिट्यूट असेम्ब्ली के मेंबर थे, तो कैसा कॉन्स्टिट्यूशन बनना चाहिए? मतलब बहुत गहरी बाते करते थें। था तो पॉलिटिक्स ही, लेकिन उस पॉलिटिक्स में और आज कल के पॉलिटिक्स में बहुत ही ज्यादा फर्क हैं। और फिर उसके बाद पता नहीं कहाँ से सब लोग वहाँ पे पहुँच गये खटमल जैसे। सारे देश का खून चूसने वाले वहाँ पहुँच गये। और उन्होंने जिस तरह से | वहाँ पर राजकारण जमाना शुरू कर दिया, अनीति शुरू कर दी। तो मैं खुद ही सोचती थी, कि दिल्ली में कभी सहजयोग हो सकेगा ? असम्भव, मैं सोचती थी, असम्भव है। क्योंकि लोगों को तो यहाँ कुर्सी की पड़ी हुई है। उसके बाद शास्त्री जी जब आये तो जरूर मुझे थोड़ी बहुत आशा दिखी । पर वो भी थोड़े दिन रहे, पर उसके बाद जो अंध:कार शुरू हो गया , जिस तरह की गड़बडियाँ शुरू हो गयी, उसका तो हम अंदाज ही नहीं कर सकते । मैं खुद सोचती थी, कि इस दिल्ली में सहजयोग का आना बहत मुश्किल हैं। लेकिन जब पहली मर्तबा मैं दिल्ली गयी तो उन्होंने पूजा में मेरे लिये छोटी छोटी प्लास्टिक की डिब्बीयाँ लायीं। वो किचन में थे । उसमें किसी किसी में कुंकुंम रखा था। देखा क्या, उसमें पहले हल्दी रखी थी, फिर उसको गिरा के उसमें कुंकुंम रखा। मैं तो एकदम सकुचा गयीं, घबराहट के मारे मेरी बॉडी इतनी छोटी सी हो गयी, कि ये लोग क्या कर रहे हैं। उनको ये भी अंदाजा नहीं कि ये लोग क्या कर रहे हैं और होगा क्या? सो मैं बस सब को बंधन दे रही थी, कि ये कोई बुरा सपना है। फिर लंगडाते लंगडाते वहाँ पर सहजयोग शुरू हुआ किसी तरह से। आपस में मारामारी भी हो गयी। झगड़ा झगड़ी भी हो गयी। वैसा खाना हो गया। सब चीजें करने के बाद आज सहजयोग वहाँ बहुत स्वच्छ रूप से सामने नज़र आ रहा है। जिसकी आप जानते नहीं कितनी बड़ी महिमा है। क्योंकि महाराष्ट्र में संत-साधुओं ने बहुत काम किया है । सब को मुखोद्गत है, कि सहजयोग क्या है! सब लोग जानते हैं, यहीं पर नाथपंथियों ने कार्य किये जोरो में होना चाहिये था। लेकिन जिन लोगों ने महालक्ष्मी कौन? ये भी नहीं जाना, हैं। यहाँ सहजयोग तो बहुत किसी को दिल्ली में महालक्ष्मी मालूम नहीं थी, कौन महालक्ष्मी है? दत्तात्रेय कौन? उनको मालूम नहीं था । मेरे पास एक दत्तात्रेय का स्टॅच्यू था, तो उसको देख कर के लोग पूछते, ‘ये कौन हैं, इनके तीन मूँह, ये कौन हैं?’ अरे,

ये क्या हद हो गयी? उनको ये भी मालूम नहीं था, कि गुरु कौन होते हैं? या दत्तात्रेय कौन हैं? या नानक साहब कौन हैं? मैं तो कहती हूँ, हद हो गयी| एक का दूसरे को पता नहीं, दूसरे का इनको पता नहीं। बस, वहाँ पे यही था, किसी के घर जाओ तो पूछते थे कि, ‘आप काँच के ग्लास में पानी पियेंगे, कि चांदी के गिलास में ?’ मैं तो कहती थी, ये भी कोई तरिका हैं! या पूछते थे, कि आप कच्चा खाना खाएंगे, कि पक्का खाना खाएंगे? पक्का ही खाएंगे भाई। कच्चा क्या खाया जाता है? तो फिर कहेंगे कि, ‘पक्का ही खाते हैं हम।’ अच्छा! फिर, ‘चांदी के गिलास में पानी पिएंगे कि काँच के गिलास में?’ कुछ समझ में नहीं आता। सब कुछ धर्म वरगैरा यहीं पर सीमित था। कच्चा- पक्का क्या है? ऐसा वैसा क्या है? और फिर करवा चौद करो, नहीं तो वो गणेश जी क्या, उनका सकट नाम रखा था, सकट महाराज की इतनी अजीब अजीब कहानियाँ, मेरी समझ में नहीं आया, कि ‘इनको किसने सकट महाराज की ऐसी ऐसी कहानियाँ बता दी है। ‘कहानी सुन ने आईयेगा जरूर हमारे यहाँ सकट महाराज की!’ और वहाँ जाईये तो बड़ी अजीब सी हालत। मेरी तो समझ में नहीं आया कि क्या कहें, कैसे सुनें, क्या बात है? ऐसी हालत में आप उनसे सहजयोग की बात कैसे कर सकते हैं ! उनको तो महालक्ष्मी क्या है ये नहीं मालूम! उनको महासरस्वती नहीं मालूम! उनको महाकाली नहीं मालूम! हाँ, वो काली तो हैं, पर महाकाली कौन हैं? किसी को किसी चीज़ का पता नहीं। ना मुसलमान धर्म मालूम ना हिंदू धर्म मालूम ना ईसाई धर्म मालूम। कोई बात नहीं मालूम! सिर्फ पॉलिटिक्स के वहाँ कोई कुछ नहीं जानता। कौन मिनिस्टर आज बैठा है? किस के सर पे टोपी है? किस के सर की टोपी उतार ली? कौन आयाराम-गयाराम ? सब इसमें सब एक्सपर्ट हैं। औरतें तक। और औरतों में ये बातें , ‘तुम कहाँ रहती हो?’ ‘मैं यहाँ रहती हूँ।’ ‘अरे, तुम्हारे हजबंड क्या क्लर्क हैं क्या ?’ ‘नहीं, क्लर्क तो नहीं। हाँ, सरकारी नौकर, तो हाँ, होंगे क्लर्क ही होंगे।’ ‘यहाँ कैसे रहती हो तुम?’ ‘अभी आये हैं मुंबई से, तो रह रहे हैं।’ उनको सब याद, कि आपका प्रमोशन कब हुआ, आप कौन, उसका क्या है। औरतों को सब लिस्ट याद है। मैंने कहा, ये सब धंधे औरतों को करने की जरूरत क्या है? फिर दूसरा बिजनेस क्लास। उनका और एक धंधा। उस वक्त कोरिया में वॉर शुरू हो गया था। तो, ‘ये कोरिया कहाँ हैं? लड़ाई वगैरा हो रही हैं, तो वहाँ दाल-चावल भेज सकते हैं कुछ?’ कहा, ‘हाँ, भाई।’ ‘तो फिर ठीक है, बिजनेस हो जाएगा वहाँ?’ मैंने कहा, ‘आपको पता भी नहीं कोरिया कहाँ हैं? दाल-चावल भेजने के लिये तैय्यार !’ याने, मेरी समझ में नहीं आता था, कि इन लोगों की खोपड़ी में ये बात आयेगी की नहीं, कि इससे भी आगे कोई चीज़ हैं । फिर उससे आगे आप चले, तो वहाँ के सरकारी नौकर। बस, वो तो जमीन पर रहते नहीं। वो तो अधांतरी घूमते रहते थे। मैं चूपचाप ही बैठी रहती थी| मैं कहती थी, तीन लोगों से क्या बात करें? मुझे कुछ वो बातें आती नहीं थी। आदमी लोगों की अपनी बातें चलती थी और औरतों की अलग, कि भाई, तुम ब्यूटिपार्लर गये थे क्या? फलाना, ठिकाना। ये वो। तो मैं कहती थीं कि, मैं इतनी अनभिज्ञ हूँ, मेरे अज्ञान को मैं इनके सामने क्या रखेँ? क्या बात करूँ ? बहुत लोग तो सोचते थे कि मैं गूँगी हूँ और बहुत से लोग सोचते थे कि मुझे हिंदी भाषा नहीं आती और बहत से लोग सोचते थे कि मुझे अंग्रेजी तो बिल्कुल ही नहीं आती। मैंने कहा, बहुत अच्छे! अपने आराम से बैठे रहो। बस देखती रहती थीं , कि क्या तमाशे चल रहे हैं! इस कदर कानाफूसी और इस कदर आपस में रस्सीखेच। ये आगे गया तो इसको गिराऊँ कैसे? वो आगे गया तो उसको गिराऊँ कैसे?

ऐसा दिल्ली शहर था। बहुत साल बीत गयें, वहाँ रहे हम। लेकिन किसी से दोस्ती नहीं कर पायें । मतलब ये कि किसी से सहजयोग की बात नहीं कर पायें। किसी से कह भी नहीं पायें की ऐसी कोई चीज़ संसार में हैं। ऐसे परम चैतन्य कोई चीज़ है। अगर वहाँ कोई हो भी, तो उसको बड़ा पांडित्य आता है। एक बड़े भारी साहब थे। उनका बहुत बड़ा नाम था। अब तो वो है नहीं। लोग उनकी बड़ी भारी फिलॉसॉफी मानते हैं। तो उनसे मिलने गये। वहाँ लाल बहादूर जी भी थे उनके साथ। तो उन्होंने जो सुनाना शुरू कर दिया । लाल बहादूर जी, वो भी शर्मिंदा हो गये। कहने लगे, ‘चलो, चलो, घर चलो। ऐसा बद्तमीज आदमी हैं। ऐसी सुनाता है और फिलॉसॉफर है।’ मैंने सोचा, देखिये। ये हालत है, कि ये इन लोगों का लेवल है। ये इन लोगों के तरिके हैं। कहाँ रह रहे हैं? कौन सी दुनिया में रह रहे हैं? कैसे सहजयोग की बात यहाँ पर हो। लेकिन मैंने सोचा, चलो, शुरू कर देते हैं । लेकिन आज, मैं तो आप ही लोगों की कृपा कहती हूँ, कि आपने इसको स्वीकार किया। क्योंकि जिस महाराष्ट्र में इतनी मेहनत हुई, जिस महाराष्ट्र में इसके बारे में मालूम था, उससे ज्यादा आप लोगों ने इसे स्वीकारा। और इसी तरह से सब जगह फैलते जा रहा है। जो आते हैं, जम जाते हैं। अब मराठी में शब्द हैं, ‘अर्धवट’। इसका हिंदी में कोई भाषांतर नहीं हो सकता। ऐसे लोग वहाँ नहीं है। कमाल के लोग हैं आप! मैं तो आश्चर्य में हूँ, कि इतनी भक्ति, इतना प्यार, इतनी गहनता इस दिल्ली शहर में, मेरे ख्याल से पांडवों से चली आ रही थी, वो फिर से फलित हुई है। कोई विश्वास ही नहीं कर सकता। जिन्होंने उस दिल्ली को देखा है, उन्हें इस दिल्ली पे विश्वास आ ही नहीं सकता कि इस तरह की बात हो सकती है। तो आप लोगों ने इस महालक्ष्मी को बगैर जाने ही महालक्ष्मी के पथ को अपना लिया और आप उसमें पूरी तरह से उतरे हैं। इस महालक्ष्मी के बारे में आप कुछ भी नहीं जानते थे, कि ये कौन सा तत्त्व हैं या इसे क्या कहते हैं? वो लोग तो सुषुम्ना नाड़ी के बारे में भी नहीं जानते थे। एक हिंदी की बड़ी भारी प्रोफेसर। उन्हें डी लिट. मिला हुआ है। वो कह रही थीं, कि ये सुषुम्ना वगैरे कुछ होता है क्या ? मैंने कहा, ‘क्यों?’ कहने लगी कि, ‘इस पर लिखा है कवियों ने कि सुषुम्ना नाड़ी होती है। और कबीरदास ने लिखा है, लेकिन ये कुछ तो भी इमॅजिनेशन होगा। मैंने कहा, ‘आपने क्यों सोचा ये इमॅजिनेशन।’ कहने लगी, ‘कहाँ से ये सब नाड़ी वगैरा की बात बेकार में कविता में लाने की क्या जरूरत है? कविता में ये तो सब लाना नहीं चाहिए। इसमें कोई सत्य ही नहीं ।’ मैंने कहा, ‘देखो, जो चीज़़ आप जानते ही नहीं उसके बारे में आपने इस तरह की बात नहीं करनी चाहिए।’ ‘जानने से भी क्या फायदा! ये सब बेकार चीजें हैं। इसमें रखा क्या है?’ मुझे इस पे बहुत परेशानी हुई। किस तरह उनको समझाया जायें, कि भाई, यही चीज़ हमारे हित के लिये हैं। यही महान चीज़ हैं और इसे आपको प्राप्त करना होगा। पर जो भी हो, मेरे ख्याल से | जो राजनैतिक वातावरण अपने यहाँ इतना गंदा हो गया है, उसी से ऊब कर के लोग फिर महालक्ष्मी तत्त्व पे आ गये। सब से बड़ी बात हैं कि इस राजनैतिक तत्त्व से भी आदमी को ऊबना पड़ता है। वो फिर महालक्ष्मी तत्त्व पे आ गये। इसलिये इनके अन्दर ये जागृती हुई है। जब देखते हैं कि कितने अजीब तरह के लोग इस राजनैतिकता को वहाँ अपनी मिल्कियत समझ रहे हैं। तो फिर एक तरह से आदमी को घिन से लगने लगती है, कि क्या है ये लोग। इनमें कोई विशेषता नहीं, इनसे तो हम हजार गुना अच्छे। और ये जो हैं सारे भारत वर्ष का उद्धार करने के लिये निकले हैं, खूद अपना तो उद्धार पहले करें और उसी की वजह से वहाँ पर महालक्ष्मी का तत्त्व इतना जागृत हो गये।

मैं स्वयं ही देख के हैरान हो जाती हूँ, गाझियाबाद में, मेरे पती वहाँ कलेक्टर थे, मेरठ में, न जाने कितनी बार हम गाझियाबाद गयें। मैं तो कहती थी, कि ये गाझियाबाद है कि क्या बाद हैं? बिल्कुल ऐसे लोग कि कोई कह ही नहीं सकता था, ये कोई विशेष चीज़ है। बिल्कुल सर्वसाधारण लोग, आपस में लड़ने-झगड़ने वाले और जाट की, जैसे जाट भाषा बोलना वगैरा और अन्दर से उन में इतना धर्म होगा, उनके अन्दर इतनी लगन होगी मुझे पता नहीं था। और जब मैंने उनको देखा तो मैं हैरान हो गयी, कितने सुन्दर लोग हैं ये! ऊपर से उबड़खाबड़ हैं, और अन्दर से कितने सुन्दर हैं। यही हाल है हरियाणा का। यही हाल अब लखनौ का मैं सुनती हूँ। लखनौ के लिये तो मुझे बिल्कुल ही उम्मीद नहीं थी। लखनौ में तो सिर्फ बातचित में ही आपको चित कर सकते हैं। लेकिन कोई वो गहरी बात पे उतरेंगे ये मैं कभी नहीं सोच सकती थी। जो मैंने कभी सोचा भी नहीं, जो कभी मैं समझ ही नहीं पायीं, वो हठात हो रहा है, ये बड़ा चमत्कार मुझे लगता है। ये क्या परम चैतन्य की कृपा है कि आप लोगों में इतनी पूरी तरह से चेतनता आ गयी है। आप चेतित हो गये हैं। आप एक संत हैं और आपको आत्मास्वरूप होना है। और आप | आत्मास्वरूप हो रहे हैं। ये कितनी महान बात हैं। इसको आप शायद नहीं समझ पायेंगे लेकिन में समझ पाती हूँ। | क्योंकि मैंने वो भी हालत देखी है और ये भी हालत देखी है। अगर समझ लीजिये, कहीं पर दुर्भिक्ष हो, अकाल पड़ा हो, लोग भूखे मर रहे हों, उनके पास पहनने को कपड़ा नहीं है, किसी तरह से सब खंडहर हो गया है। तो वहाँ जाते ही आप दूसरी मर्तबा देखते हैं, कि एकदम हरियाली, सब लोग खूशहाल। सब हँस रहे हैं, खूश हैं। तो आपको देख के लगेगा एक मिनट के लिये कि क्या मैं इसी दिल्ली में आयी हूँ या और दिल्ली हैं! ये मैं आपकी तारीफ़ नहीं कर रही हूैँ। सिर्फ मेरे हृदय के उद्गार हैं, जिन्हें मैं कह रही हूँ। लेकिन सम्भल के रहिये। बहत सी बातें ऐसी होती है अज्ञात में जब कि हमारे ऊपर निगेटिविटी असर कर सकती है। इसलिये बहत सम्भल के रहना चाहिए ।